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|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा
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विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
 
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
 
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
 
निर्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार,
 
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
 
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीँ हो क्यूँ ?
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
 
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
 
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई,
 
निर्ल्लज्ज भाव से , बहती हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार गंगा की धार,
 
 
निर्बल जन को, सबल संग्रामी, गमग्रोग्रामी,बनाती नहीं हो क्यूँ ?
 
इतिहास की पुकार, करे हुंकार,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
 
अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिन जन,
 
अज्ञ विहिन नेत्र विहिन दिक` मौन हो क्यूँ ?
 
व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
 
व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोड़ती न क्यूँ ?
 
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को, सबल संग्रामी,
 
गमग्रोग्रामी,बनाती नहीं हो क्यूँ ?
 
विस्तार है अपार ..प्रजा दोनो पार..करे हाहाकार ...
 
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
अनपढ जन, अक्षरहीन, अनगिनजन,
 
अज्ञ विहिननेत्र विहिन दिक` मौन हो कयूँ ?
 
व्यक्ति रहे , व्यक्ति केन्द्रित, सकल समाज,
 
व्यक्तित्व रहित,निष्प्राण समाज को तोडती न क्यूँ ?
विस्तार है अपार.. प्रजा दोनो पार.. करे हाहाकार...
 
निशब्द सदा ,ओ गंगा तुम, बहती हो क्यूँ ?
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