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तुम दुबली-पतली दीपक की लौ-सी सुन्दर
मैं दुर्निवार
मैं तुम्हें समेटे हूँ सौ-सौ बाहों में, मेरी ज्योति प्रखर
 
आपुलक गात में मलय-वात
मैं चिर-मिलनातु जन्मजात
थर्-थर् कम्पित ज्यों स्वर्ण-पात
कँपती छायावत्, रात, काँपते तम प्रकाश अलिंगन भर
 
आँखे से ओझल ज्योति-पात्र
तुम गलित स्वर्ण की क्षीण धार
साकार हुई छवि निराकार
तुम स्वर्गंगा, मैं गंगाधर, उतरो, प्रियतर, सिर आँखों पर
 
नलकी में झलका अंगारक
बूँदों में गुरू-उसना तारक
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