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मन रुई का / शांति सुमन

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|रचनाकार=शांति सुमन
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<poem>
पड़ी औंधी नाव
रेतों को पसीना छूटता है ।
इस सी में कहाँ कोई
घर हमारा पूछता है ।
दस्तकें देती हवा
ठहरी हुई चौगान पर
मन हमारा भी ढहा है
कुछ इसी अरमान पर
पड़ी औंधी नाव <br>देख भाई कांच का सपना रेतों को पसीना छूटता है ।<br>इस सी में कहाँ कोई<br>घर हमारा पूछता से टूटता है ।<br><br>?
दस्तकें देती हवा<br>पहन सारी चुप्पियाँठहरी हुई चौगान पर<br>घिरने लगे हैं फूलमन हमारा बिना कुछ भी ढहा है<br>कुछ इसी अरमान पर<br><br>देख भाई कांच का सपना <br>बताएकहाँ से टूटता है ?<br>झरने लगे हैं फूल
पहन सारी चुप्पियाँ<br>धुने जाने के लिए हीघिरने लगे हैं फूल<br>बिना कुछ भी बताए<br>झरने लगे हैं फूल<br>मन रुई का फूटता है ।
धुने जाने के लिए ही<br>मन रुई का फूटता है ।<br><br>शिराओं में बज रहे जो<br>रात-दिन के शंख<br>देखते बच्चे क़िताबों में<br>बया के पंख<br> कौन ये हसते हँसते हुए-<br>सुख का खज़ाना लूटता है?<br><br/poem>
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