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बड़ी हुई धूप / शांति सुमन

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|रचनाकार=शांति सुमन
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बड़ी हुई कुछ और धूप
ये तेवर निखरे जून के
उजले-उजले पंखों वाले
पाखी जैसे हों चून के
भरी हुई उजली दोपहरी
हुई छाँह पेड़ की छोटी
अब घर नहीं लौटते बच्चे
सिर पर रख कापी मोटी
<br>बुखर गए बस्ते जैसेसामान किसी परचून केअक्षर-अक्षर नाच रहीआँखें जैसे हों तितलीसिर पर चढ़े मोर सी नाचेचंचल पानी की मछली
बड़ी हुई कुछ और धूप<br>ये तेवर निखरे जून के<br>उजले-उजले पंखों वाले<br>पाखी जैसे हों चून के<br><br> भरी हुई उजली दोपहरी<br>हुई छाँह पेड़ की छोटी<br>अब घर नहीं लौटते बच्चे<br>सिर पर रख कापी मोटी<br> बुखर गए बस्ते जैसे<br>सामान किसी परचून के<br><br>अक्षर-अक्षर नाच रही<br>आँखें जैसे हों तितली<br>सिर पर चढ़े मोर सी नाचे<br>चंचल पानी की मछली<br><br>हँस-हँसकर दुहरे होते वो<br>सपने उड़ते बैलून के <br><br>धीरे-धीरे दिन जाता है<br>रात कहीं से जल्दी<br>बाग हुए रस भरे अमावट<br>देह लगी जो हल्दी<br><br>बरफ चूसकर लेटे होंगे<br>खत पढ़ते पिछले जून के <br><br/poem>
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