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सूरज के साथ हम / शांति सुमन

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खिसकने लगा अब किनारा
छूटने लगा है जहाज ।

अभी-अभी जो जैसे थे
धीरे से अनहुए हुए ।
बादल की नदी लांघकर
सूरज के साथ हम बहे ।

हिलता हाथों का सहारा
महंगा मूंगे का ताज ।

मुस्कानों का एक अदद मौसम
सामने पलासों-सा दहका ।
बीच दुपहरिया में जैसे
धूपों से सिंकता मन महका ।

पिछली यादों में दुबारा
उधड़े कमीजों के काज ।

यह कैसा विदा का सन्नाटा
कोसों तक सूना मन कांपा ।
उंगलियों फंसा छोटा सा कागज
हवा ने उदासी को छापा ।

कितना अमीर जी हमारा
सपनों पर है जिसको नाज ।
</poem>

(२९ सितम्बर, १९८० को रचित)
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