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{{KKRachna
|रचनाकार=कबीर
निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।<br />जहां न तनिक न्याय विचार ।।<br />रंगमहल में बसें मसखरे, पास तेरे सरदार ।<br />धूर धूप में साधो विराजें, होये भवनिधि पार ।।<br />वेश्या आेढे खासा मखमल, गल मोतिन का हार ।<br />पतिव्रता को मिले न खादी सूखा ग्रास अहार ।।<br />पाखंडी को जग में आदर, सन्त को कहें लबार ।<br />अज्ञानी को परं ब्रहम ज्ञानी को मूढ़ गंवार ।।<br />सांच कहे जग मारन धावे, झूठन को इतबार ।<br />कहत कबीर फकीर पुकारी, जग उल्टा व्यवहार ।।<br />निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।<br />}}