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साँचा:KKPoemOfTheWeek

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<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td>
<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको पूरे हुए पचास वर्ष <br>&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[अदम गोंडवीशलभ श्रीराम सिंह]]</td>
</tr>
</table>
<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none">
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप कोमैं चमारों '''आज़ादी की गली तक ले चलूंगा आपकोजिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब करमर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब करहै सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरीआ रही है सामने से हरखुआ की छोकरीचल रही है छंद के आयाम को देती दिशामैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसाकैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुईलग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुईकल को यह वाचाल थी पचासवीं सालगिरह पर आज कैसी मौन हैजानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन हैएक कविता'''
थे यही सावन नाश्ते के दिन हरखू गया था हाट कोसो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट कोडूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत सेघास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत सेआ रही थी वह चली खोई भुनी हुई जज्बात मेंस्त्री का गोश्त लाया जाए क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात मेंहाथ धोने के लिए अगवा किये गए होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों किसी बच्चे की खोपड़ी में थीलाया जाए ठण्डा पानी मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थीचीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गईछटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गईदिन तो सरजू शाल के कछारों में था कब का ढल गयाबदले किसी निर्दोष नागरिक की चमड़ी लाई जाए वासना महामहिम परेड की आग में कौमार्य उसका जल गयासलामी लेने के लिए तैयार हो रहे हैं
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज मेंहोश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद मेंजुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब थाजो भी था अपनी सुनाने भ्रष्ट्राचार के लिए बेताब थापचास वर्ष पूरे हुएबढ़ बलात्कार और व्यभिचार के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन हैपचास वर्षपूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन हैकोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहींकच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहींकैसे हो सकता है होनी कह पूरे हुए पचास वर्ष हत्या और हाहाकार के हम टाला करेंऔर ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करेंबोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध सेबच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों मानवता के कान मेंसारे प्रतिमान ढहाए गएवे इकट्ठे हो बहाए गए थे सरचंप के दालान मेंघडियाली आँसूं जार-जारदृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक परदेखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक करक्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गयाकल तलक जो पाँव चढ़ाए गए आख़िरी ऊँचाई तक प्रार्थनाओं के नीचे था रुतबा पा गयास्वरकहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहोसुअर भगवानों के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहोघर जलाए और गिराए गए
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहांजी भर तबाह की गई दिलों की ख़ूबसूरतीवादियों और बस्तियों पर तैनात हुए सन्नाटेपड़ गया है सीप का मोती गँवारों गोलियों से खेले गए मज़हब और जबान के यहांखेलजैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर हैहाथ न पुट्ठे पे मेल बरकरार रखने देती है, मगरूर हैभेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआफिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआआज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गईके लिए हिन्दू-मुस्लिम -जैन-सिख ईसाई काजानेनारा लगते हुए 'भाई-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गईवो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गईवरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रहीभाई' का, पूरे हुए पचास वर्ष
जानते सवाल उठाते-उठाते -बोलियाँ नंगी हो गई हैं आप मंगल एक ही मक्कार हैभाषाएँ छिनाल हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार हैमनों की सुन्दरता समाप्त हो गई हैं तनों के विज्ञापनों सेकल सुबह गरदन अगर नपती फिर भी कुछ लोगों के लिए'मचलती और झूमती हुई आ रही है बेटे-बाप कीगाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी´आज़ादी 'बात बर्बादी का लहजा था ऐसा ताव सबको आ बेशर्म जश्न कब और कहाँ मनाया गयाहाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर थाहाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर थारात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर थाहै इतिहास में ?
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और थाइस बीच लगातार हलाल हुए हैं भगत सिंहों के सपनेसिर पे टोपी बेंत बिस्मिलों की लाठी संभाले हाथ मेंएक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों तमन्नाएँ ,अशफ़ाक‍उल्लाओं के साथ मेंजज्बातघेरकर बस्ती कहा हलके सुभाषों की ललकारें, गाँधीयों के थानेदार ने -`जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´सन्देश और जयप्रकाशों की तड़प ,निकला मंगल झोपड़ी हिंसा और हड़प के पैरोकारों का पल्ला थोड़ा खोलकरएक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ करगिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा ध्यान नहीं गयाउधरसुन पड़ा फिर `माल वो चोरी कान नहीं गया किसी का तूने क्या किया´`कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहाएक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहाहोश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी दुर्घटना के द्वार इतनें कड़े कर्कश नाद पर
ठाकुरों भविष्य के अन्धेरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर भयभीत -`मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दोरोशन उँगलियों की प्रतीक्षा करता रहा देश आग लाओ आज़ादी के पहले की बात और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो´और फिर प्रतिशोध थी, आज़ादी के बाद की आंधी वहाँ चलने लगीबेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगीदुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में थाऔर है वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में गुलामी का दौर था,यह गुलामों का दौर है घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगेवनों की हरियाली नष्ट की गई इस बीचकुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगेघोटा गया नदियों का गलापहाड़ों की खाल खींची गई पूरी बेरहमी के साथ
´´ कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहींहुक्म जब पशुओं की भूख तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं ´´यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल भुनाई जा रही है शान सेआ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल सेफिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगाठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ देंहोश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"बोला थानेदार "मुर्गे ईमान के गले पर पाँव रख कर की तरह मत बांग दोजा रही है बेईमानीहोश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लोये समझते हैं कि ठाकुर जान और जहान से उनझना खेल बड़ा हो गया हैपैसाऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"काहे की देशभक्ति ,नैतिकता काहे की, न्याय कैसा ?
पूछते रहते ज्ञान के मंदिरों में गुंडे तैयार किए जा रहे हैं मुझसे लोग अकसर यह सवालयहाँ`कैसा है कहिए न सरजू पार झकाझक परिधानों में विचर रहे हैं मूँछ मुंडे अपराधीपूरा का पूरा मुल्क इनके बाप की कृष्ना जागीर हो जैसे  चारो ओर बोलबाला है तस्कर संस्कृति का हाल´उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार कोरिश्वत-कमीशन-हवाला और घोटाला है चारों ओरसड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार कोधर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार कोइस देश का परधान मन्तरी मजबूर हैप्रांत मजबूर है हमारा सब से बड़ा और विश्वसनीय सन्तरी एक सदा जीवित जन-संसार पर्दे के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार कोपीछे सरकाया जा रहा हैमैं निमंत्रण दे दरकाया जा रहा हूँ आएँ मेरे गाँव मेंहै देश का भूगोल अपनी इच्छा भरतट पे नदियों दराँतियों से दराँतियाँ नहीं ,जातियों से जातियाँ भिड़ाई जा रही हैंवर्ण-विद्वेष की लडाइयाँ लडाई जा रही हैं ,वर्ग-संघर्ष के घनी अमराइयों बदलेमूर्तियों की छाँव आड़ मेंजबरजोत की जंग जारी हैगाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी एक ख़तरनाक चुप्पी तारी है कश्मीर से कन्याकुमारी तक  उदार बनाये जाने के चक्कर में नगद से उधार होता जा रहीरहा है देशया अहिंसा उधार होता जा रहा है विश्वबाज़ार में बदलते हुए ख़ुद को जडी-बूटियों तक पर नहीं रह गया उसका अधिकारनीम तक को लाकर पटक दिया है बाज़ार की जहाँ चौखट पर नथ उतारी जा रहीहैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के यह एक जीवित धिक्कार है हमारे लिएबेचती पिछले पचास वर्षों में इस देश की अंतरात्मा सो गई है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी गिद्धों और महागिद्धों की भूमि हो गई है इस देश की धरती सोने की चिड़िया की जान साँसत में हैआफ़त में है कविता का एक-एक शब्द भ्रष्टाचार -बलात्कार -व्यभिचार -हत्याऔर हाहाकार के पचास वर्ष पूरे हुएपरेड की सलामी लेने के लिए !तैयार हो रहे हैंमहामहिम   रचनाकाल : 14-15 अगस्त 1997 , मध्य रात्रि ,विदिशा  '''शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रविन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।'''</pre>
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