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Kavita Kosh से
क्यों नहीं वह बात मुझमें है
शाम कन्धे कन्धों पर लिये अपने
जिन्दगी के रू ब रू चलना
रोशनी का हमसफर होना
आग जो जलते सफ़र में है
क्यों नहीं वह बात मुझमें है।
रोज सूरज की तरह उगना
शिखर पर चढ़ना, उतर जाना
घाटियों पर रंग भर जाना
फिर सुरंगों से गुजर जाना
एक नन्हीं जान चिडि़या का
डा़ल से उड़कर हवा होना
सात रंगों के की लिये दुनिया
वापसी में नींद भर सोना
जो खुला आकाश स्वर में है
क्यों नहीं वह बात मुझमें है।
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