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अव्यवस्थित / जयशंकर प्रसाद

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|संग्रह=झरना / जयशंकर प्रसाद
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विश्व के नीरव निर्जन में।
 
जब करता हूँ बेकल, चंचल,
 
मानस को कुछ शान्त,
 
होती है कुछ ऐसी हलचल,
 
हो जाता हैं भ्रान्त,
 
भटकता हैं भ्रम के बन में,
 
विश्व के कुसुमित कानन में।
 
जब लेता हूँ आभारी हो,
 
बल्लरियों से दान
 
कलियों की माला बन जाती,
 
अलियों का हो गान,
 
विकलता बढ़ती हिमकन में,
 
विश्वपति! तेरे आँगन में।
 
जब करता हूँ कभी प्रार्थना,
 
कर संकलित विचार,
 
तभी कामना के नूपुर की,
 
हो जाती झनकर,
 
चमत्कृत होता हूँ मन में,
 
विश्व के नीरव निर्जन में।
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