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आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ २

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|सारणी=आँसू / जयशंकर प्रसाद
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{{KKCatKavita}}<poem>प्रतिमा में सजीवता-सी<br />बस गयी सुछवि आँखों में<br />थी एक लकीर हृदय में <br /> जो अलग रही लाखों में।<br /><br /> माना कि रूप सीमा हैं<br />सुन्दर! तव चिर यौवन में<br />पर समा गये थे, मेरे<br />मन के निस्सीम गगन में।<br /><br /> लावण्य शैल राई-सा<br />जिस पर वारी बलिहारी<br />उस कमनीयता कला की<br />सुषमा थी प्यारी-प्यारी।<br /><br /> बाँधा था विधु को किसने<br />इन काली जंजीरों से<br />मणि वाले फणियों का मुख<br />क्यों भरा हुआ हीरों से?<br /><br /> काली आँखों में कितनी <br /> यौवन के मद की लाली<br />मानिक मदिरा से भर दी<br />किसने नीलम की प्याली?<br /><br /> तिर रही अतृप्ति जलधि में<br />नीलम की नाव निराली<br />कालापानी वेला-सी<br />हैं अंजन रेखा काली।<br /><br /> अंकित कर क्षितिज पटी को<br />तूलिका बरौनी तेरी<br />कितने घायल हृदयों की<br />बन जाती चतुर चितेरी।<br /><br /> कोमल कपोल पाली में<br />सीधी सादी स्मित रेखा<br />जानेगा वही कुटिलता<br />जिसमें भौं में बल देखा।<br /><br /> विद्रुम सीपी सम्पुट में<br />मोती के दाने कैसे<br />हैं हंस न, शुक यह, फिर क्यों<br />चुगने की मुद्रा ऐसे?<br /><br /> विकसित सरसित वन-वैभव<br />मधु-ऊषा के अंचल में<br />उपहास करावे अपना<br />जो हँसी देख ले पल में!<br /><br /> मुख-कमल समीप सजे थे<br />दो किसलय से पुरइन के<br />जलबिन्दु सदृश ठहरे कब<br />उन कानों में दुख किनके?<br /><br /> थी किस अनंग के धनु की<br />वह शिथिल शिंजिनी दुहरी<br />अलबेली बाहुलता या<br />तनु छवि सर की नव लहरी?<br /><br /> चंचला स्नान कर आवे<br />चंद्रिका पर्व में जैसी<br />उस पावन तन की शोभा<br />आलोक मधुर थी ऐसी!<br /><br /> छलना थी, तब भी मेरा<br />उसमें विश्वास घना था<br />उस माया की छाया में<br />कुछ सच्चा स्वयं बना था।<br /><br /> वह रूप रूप ही केवल<br />या रहा हृदय भी उसमें<br />जड़ता की सब माया थी<br />चैतन्य समझ कर मुझमें।<br /><br /> मेरे जीवन की उलझन<br />बिखरी थी उनकी अलकें<br />पी ली मधु मदिरा किसने<br />थी बन्द हमारी पलकें।<br /><br /> ज्यों-ज्यों उलझन बढ़ती थी<br />बस शान्ति विहँसती बैठी<br />उस बन्धन में सुख बँधता<br />करुणा रहती थी ऐंठी।<br /><br /> हिलते द्रुमदल कल किसलय<br />देती गलबाँही डाली<br />फूलों का चुम्बन, छिड़ती<br />मधुप की तान निराली।<br /><br /> मुरली मुखरित होती थी<br />मुकुलों के अधर बिहँसते<br />मकरन्द भार से दब कर<br />श्रवणों में स्वर जा बसते।<br /><br /> परिरम्भ कुम्भ की मदिरा<br />निश्वास मलय के झोंके<br />मुख चन्द्र चाँदनी जल से<br />मैं उठता था मुँह धोके।<br /><br /> थक जाती थी सुख रजनी<br />मुख चन्द्र हृदय में होता<br />श्रम सीकर सदृश नखत से<br />अम्बर पट भीगा होता।<br /><br /> सोयेगी कभी न वैसी<br />फिर मिलन कुंज में मेरे<br />चाँदनी शिथिल अलसायी<br />सुख के सपनों से तेरे।<br /><br /> लहरों में प्यास भरी है<br />है भँवर पात्र भी खाली<br />मानस का सब रस पी कर<br />लुढ़का दी तुमने प्याली।<br /><br /> किंजल्क जाल हैं बिखरे<br />उड़ता पराग हैं रूखा<br />हैं स्नेह सरोज हमारा<br />विकसा, मानस में सूखा।<br /><br /> छिप गयी कहाँ छू कर वे<br />मलयज की मृदु हिलोरें<br />क्यों घूम गयी हैं आ कर<br />करुणा कटाक्ष की कोरें।<br /><br /> विस्मृति हैं, मादकता हैं<br />मूचर्छना भरी हैं मन में<br />कल्पना रही, सपना था<br />मुरली बजती निर्जन में।<br /><br /poem>
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