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|सारणी=आँसू / जयशंकर प्रसाद
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{{KKCatKavita}}<poem>आशा का फैल रहा है<br />यह सूना नीला अंचल<br />फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे<br />उसमें करुणा हो चंचल<br /><br /> मधु संसृत्ति की पुलकावलि<br />जागो, अपने यौवन में<br />फिर से मरन्द हो<br />कोमल कुसुमों के वन में।<br /><br /> फिर विश्व माँगता होवे<br />ले नभ की खाली प्याली<br />तुमसे कुछ मधु की बूँदे<br />लौटा लेने को लाली।<br /><br /> फिर तम प्रकाश झगड़े में<br />नवज्योति विजयिनि होती<br />हँसता यह विश्व हमारा<br />बरसाता मंजुल मोती।<br /><br /> प्राची के अरुण मुकुर में<br />सुन्दर प्रतिबिम्ब तुम्हारा<br />उस अलस ऊषा में देखूँ<br />अपनी आँखों का तारा।<br /><br /> कुछ रेखाएँ हो ऐसी<br />जिनमें आकृति हो उलझी<br />तब एक झलक! वह कितनी<br />मधुमय रचना हो सुलझी।<br /><br /> जिसमें इतराई फिरती<br />नारी निसर्ग सुन्दरता<br />छलकी पड़ती हो जिसमें<br />शिशु की उर्मिल निर्मलता<br /><br /> आँखों का निधि वह मुख हो<br />अवगुंठन नील गगन-सा<br />यह शिथिल हृदय ही मेरा<br />खुल जावे स्वयं मगन-सा।<br /><br /> मेरी मानसपूजा का<br />पावन प्रतीक अविचल हो<br />झरता अनन्त यौवन मधु<br />अम्लान स्वर्ण शतदल हो।<br /><br /> कल्पना अखिल जीवन की<br />किरनों से दृग तारा की<br />अभिषेक करे प्रतिनिधि बन<br />आलोकमयी धारा की।<br /><br /> वेदना मधुर हो जावे<br />मेरी निर्दय तन्मयता <br /> मिल जाये आज हृदय को<br />पाऊँ मैं भी सहृदयता।<br /><br /> मेरी अनामिका संगिनि!<br />सुन्दर कठोर कोमलते!<br />हम दोनों रहें सखा ही<br />जीवन-पथ चलते-चलते।<br /><br /> ताराओं की वे रातें<br />कितने दिन-कितनी घड़ियाँ<br />विस्मृति में बीत गईं वें<br />निर्मोह काल की कड़ियाँ<br /><br /> उद्वेलित तरल तरंगें<br />मन की न लौट जावेंगी<br />हाँ, उस अनन्त कोने को<br />वे सच नहला आवेंगी।<br /><br /> जल भर लाते हैं जिसको<br />छूकर नयनों के कोने<br />उस शीतलता के प्यासे<br />दीनता दया के दोने।<br /><br /> फेनिल उच्छ्वास हृदय के<br />उठते फिर मधुमाया में<br />सोते सुकुमार सदा जो<br />पलकों की सुख छाया में।<br /><br /> आँसू वर्षा से सिंचकर<br />दोनों ही कूल हरा हो<br />उस शरद प्रसन्न नदी में<br />जीवन द्रव अमल भरा हो।<br /><br /> जैसे जीवन का जलनिधि<br />बन अंधकार उर्मिल हो<br />आकाश दीप-सा तब वह<br />तेरा प्रकाश झिलमिल हो।<br /><br /> हैं पड़ी हुई मुँह ढककर<br />मन की जितनी पीड़ाएँ<br />वे हँसने लगीं सुमन-सी<br />करती कोमल क्रीड़ाएँ।<br /><br /> तेरा आलिंगन कोमल<br />मृदु अमरबेलि-सा फैले<br />धमनी के इस बन्धन में<br />जीवन ही हो न अकेले।<br /><br /> हे जन्म-जन्म के जीवन<br />साथी संसृति के दुख में<br />पावन प्रभात हो जावे<br />जागो आलस के सुख में ।<br /><br /> जगती का कलुष अपावन<br />तेरी विदग्धता पावे<br />फिर निखर उठे निर्मलता<br />यह पाप पुण्य हो जावे।<br /><br /> सपनों की सुख छाया में<br />जब तन्द्रालस संसृति है<br />तुम कौन सजग हो आई<br />मेरे मन में विस्मृति है!<br /><br /> तुम! अरे, वही हाँ तुम हो<br />मेरी चिर जीवनसंगिनि<br />दुख वाले दग्ध हृदय की<br />वेदने! अश्रुमयि रंगिनि!<br /><br /> जब तुम्हें भूल जाता हूँ<br />कुड्मल किसलय के छल में<br />तब कूक हूक-सू बन तुम<br />आ जाती रंगस्थल में।<br /><br /> बतला दो अरे न हिचको<br />क्या देखा शून्य गगन में<br />कितना पथ हो चल आई<br />रजनी के मृदु निर्जन में!<br /><br /> सुख तृप्त हृदय कोने को<br />ढँकती तमश्यामल छाया<br />मधु स्वप्निल ताराओं की<br />जब चलती अभिनय माया।<br /><br /> देखा तुमने तब रुककर<br />मानस कुमुदों का रोना<br />शशि किरणों का हँस-हँसकर<br />मोती मकरन्द पिरोना।<br /><br /> देखा बौने जलनिधि का<br />शशि छूने को ललचाना<br />वह हाहाकार मचाना<br />फिर उठ-उठकर गिर जाना।<br /><br /> मुँह सिये, झेलती अपनी<br />अभिशाप ताप ज्वालाएँ<br />देखी अतीत के युग की<br />चिर मौन शैल मालाएँ।<br /><br /> जिनपर न वनस्पति कोई<br />श्यामल उगने पाती है<br />जो जनपद परस तिरस्कृत<br />अभिशप्त कही जाती है।<br /><br /> कलियों को उन्मुख देखा<br />सुनते वह कपट कहानी<br />फिर देखा उड़ जाते भी<br />मधुकर को कर मनमानी।<br /><br /> फिर उन निराश नयनों की<br />जिनके आँसू सूखे हैं<br />उस प्रलय दशा को देखा <br /> जो चिर वंचित भूखे हैं।<br /><br /> सूखी सरिता की शय्या<br />वसुधा की करुण कहानी<br />कूलों में लीन न देखी<br />क्या तुमने मेरी रानी?<br /><br /> सूनी कुटिया कोने में<br />रजनी भर जलते जाना<br />लघु स्नेह भरे दीपक का<br />देखा है फिर बुझ जाना।<br /><br /> सबका निचोड़ लेकर तुम<br />सुख से सूखे जीवन में<br />बरसों प्रभात हिमकन-सा<br />आँसू इस विश्व-सदन में ।<br /><br /poem>