भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह=युगांत / सुमित्रानंदन पंत
}}
{{KKCatKavita}}
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!
संग-सौध में हो श्रृंगार मरण का शोभन,
नग्न, क्षुधातुर , वास -विहीन रहें जीवित जन?
मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति?
आत्मा का अपमान, प्रेत औ\' औ’ छाया से रति!! प्रेम -अर्चना यही, करें हम मरण को वरण? स्थापति स्थापित कर कंकाल, भरे भरें जीवन का प्रांगण?
शव को दें हम रूप, रंग, आदर मानन का मानव को हम कुत्सित चित्र बना दे दें शव का? गत -युग के मृत आदर्शों बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर मानव के मोहांध हृदय मे में किए हुए घर, !
भूल गये हम जीवन का संदेश अनश्वर,
मृतकों के है हैं मृतक , जीवतों का है ईश्वर!
</poem>