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Kavita Kosh से
हमें जो चाह है उस स्वप्न को हम शांति कहते हैं
लफंगे हैं वो, कत्ल-ए-आम को जो क्रांति कहते हैं..
वो झरना दूर से देखो, न जाना अबकि जंगल में
न फँस जाओ अमंगल में
तुम्हारे घर में उन दो-मुहे दगाबाजों का कब्जा है
तुम्हारे जो हितैषी बन, तुम्हारी पीठ पर खंजर चलाते हैं
"आमचो बस्तर, किमचो सुन्दर था", लहू से बेगुनाहों के लाल लाल हैझंडा उठाने वाले जलीलों, तुम्हारी दलीलें भी बाकमाल हैंतुम्हारे इन पटाखों से कोई सिस्टम बदलता है?
घने बादल के पीछे से, नहीं सूरज निकलता है
अरे बिल से निकल आओ, अपनी बातों को अक्स दो