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{{KKRachna
|रचनाकार=राजीव रंजन प्रसाद
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}}
{{KKCatKavita}}<poem>'''नींद -१'''

ख्वाब टूटेंगे कांच की तरह
और नंगे पाँव जो चलना होगा
ज़िन्दगी फिर लहू लहू होगी
मुझको ख्वाबों में और जीनें दो
नींद तुम ओढ लो मुझे आ कर
और जानम के देश हो आयें...

'''नींद -२'''

नींद नदी हो गयी
और मैनें तुम्हे देखा चाँद
बिलकुल क्षितिज पर जहाँ नदी मुडती है
मैं कागज़ की कश्ती को हाथों से खेता था
आह कि साहिल पर रेत ही रेत रही
तुम डूब गये
भोर का ख्वाब था...

'''नींद -३'''

रात रहे नींद रहे और आफताब रहे
मुझसे सच को परे हटा के रखो
मुझको सोने दो और जीने दो
रात होती तो दिन निकलता है
गम का सूरज भी तभी ढलता है
दिन निकलता है रात होती है
और ख्वाबों के टूटते मोती
फिर बटोरो कि रात हो जाये
मेरे ख्वाबों का फिर सवेरा हो
हमनें माना कि खाब का क्या है
खाब तो फिर भी एक खाब रहे
फिर भी जीनें की हमें हसरत है
रात रहे, नींद रहे और आफताब रहे..

'''नींद -४'''

रात और चांद का एक रिश्ता है
नींद और चांद का एक रिश्ता है
मेरा और चांद का एक रिश्ता है
मै, नींद, रात और चांद
जब इकट्ठे होते हैं
महफिलें सजती हैं
और ज़िन्दगी जाग जाती है..

'''नींद -५'''

तुम न आओ न सही
नींद तो आये मुझको
रात आँखों में कट गयी तो सनम
फिर मुलाकात कब कहाँ होगी?

'''नींद -६'''

आप तो जाते रहे
फिर नींद भी जाती रही
आसमां की चांदनी
हमको जलाती भी रही
वो एक ख्वाब जो आँखें खुले
देखा किये हम रात भर
जलती रही अपनी चिता
जैसे जला करते अभी
जब बुझ गये बस राख थे
आ कर कहीं से तुम तभी
ले चुटकियों में राख
माथे पर सजा ली
फिर जी गये हम

पलक झपकी
रात काली...

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