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गीते मेरी, तज रूप-नाम<br>
वर लिया अमर शाश्वत विराम<br>
पूरे कर शुचितर सुपर्यायसपर्याय<br>
जीवन के अष्टादशाध्याय,<br>
चढ चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण<br>
कह - "पित:, पूर्ण आलोक-वरण<br>
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,<br>
'सरोज' का ज्योति:शरण - तरण!" --<br><br>
अशब्द अधरों का सना सुना भाष,<br>
मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश<br>
मैंने कुछ, अहरह रह निर्भर<br>
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।<br>
जीवित-कविते, शत-शरशत-जर्जर<br>
छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर<br>
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार --<br>
तारूँगी कर गह दुस्तर तम?" --<br><br>
कहता तेरा प्रयाण सविनय, --<br>
कोई न था अन्य भाविदय।भावोदय।<br>
श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार<br>
शुक्ला प्रथमा, कर गई पार!<br><br>
क्षीण का न छीना कभी अन्न,<br>
मैं लख न सका वे दृग विपन्न,<br>
अपने आँसुओ आँसुओं अत: बिम्बित<br>
देखे हैं अपने ही मुख-चित।<br><br>
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