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तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम<br>
मैं सामाजिक योग के प्रथम,<br>
लग्न लेके; पढूंगा स्वयं मंत्र<br>
यदि पंडितजी होंगे स्वतन्त्र।<br>
जो कुछ मेरे, वह कन्या का,<br>
देखती मुझे तू हँसी मन्द,<br>
होंठो में बिजली फँसी स्पन्द<br>
उर में भरी भर झूली छवि सुन्दर,<br>
प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर<br>
तू खुली एक उच्छवास संग,<br>
प्रिय मौन एक संगीत भरा<br>
नव जीवन के स्वर पर उतरा।<br>
माँ की कुल शिक्षा मैनें मैंने दी,<br>
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,<br>
सोचा मन में, "वह शकुन्तला,<br>
पर पाठ अन्य यह अन्य कला।"<br><br>
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद्मसमोद<br>
बैठी नानी की स्नेह-गोद।<br>
मामा-मामी का रहा प्यार,<br>
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