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वसंत / मोहन राणा

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|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदी / मोहन राणा
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सपनों के बिना अर्थहीन है यथार्थ
 
यही सोचते मैं बदलता करवट,
 
परती रोशनी में सुबह की
 
लापता है वसंत इस बरस,
 
हर पेड़ पर चस्पा है गुमशुदा का इश्तिहार,
 
पर उसमें ना कोई अता है ना पता
 
ना ही कोई पहचान
 
मालूम नहीं मैं क्या कहूँगा
 
यदि वह मिला कहीं
 
क्या मैं पूछंगा उसकी अनुपस्थिति का कारण
 
कि इतनी छोटी सी मुलाकात
 
क्या पर्याप्त
 
फिर से पहचानने के लिए
 
तो लिख लूँ इस इश्तिहार में अपना नाम भी
 
कि याद आए कुछ
 
जो भूल ही गया,
 
अनुपस्थित स्पर्श
  '''रचनाकाल: 21.3.2006</poem>
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