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|संग्रह=समुद्र पर हो रही है बारिश / नरेश सक्सेना
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वही जो घोड़े की नसों में ख़ून बनकर दौड़ती है
 
जो गाय के थनों में दूध बनकर फूटती है
 
वही
 
जो बिछी रहती है धरती पर
 
और कुचली जाती रहती है लगातार
 
कि अचानक एक दिन
 
महल की मीनारों और क़िले की दीवारों पर
 
शान से खड़ी हो जाती है
 
उन्हें ध्वस्त करने की शुरूआत करती हुई
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