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|संग्रह=जूझते हुए / महेन्द्र भटनागर
}}
{{KKCatKavita}}<poem>यह कितना अजीब है !<br>आज़ादी के<br>तीन-तीन दशक<br>बीत जाने के बाद भी<br>पाँच-पाँच पंचवर्षीय योजनाओं के<br>रीत जाने के बाद भी<br>मेरे देश का<br>आम आदमी ग़रीब है !<br>बेहद ग़रीब है !<br>यह कितना अजीब है !<br><br>
सर्वत्र<br>धन का, पद का, पशु का<br>साम्राज्य है,<br>यह कैसा स्वराज्य है ?<br><br>
धन, पद, पशु<br>भारत-भाग्य-विधाता हैं,<br>चारों दिशाओं में<br>उन्हीं का जय-जयकार,<br>उन्हीं का अहंकार<br>व्याप्त है,<br>परिव्याप्त है,<br>और सब-कुछ समाप्त है !<br><br>
शासन<br>अंधा है, बहरा है,<br>जन-जन का संकट गहरा है !<br>::(खोटा नसीब है !) <br> लगता है —<br>परिवर्तन दूर नहीं,<br>::क़रीब है !<br>किन्तु आज<br>यह सब<br>::कितना अजीब है !<br/poem>