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|संग्रह=जिजीविषा / महेन्द्र भटनागर
}}
{{KKCatKavita}}{{KKCatGeet}}<poem>क्या अभी भी रात्रि है कुछ शेष ? <BR><br>
स्तब्धता, लगता कि सोया भोर,<br>देखती आँखें क्षितिज की ओर,<br>सृष्टि का बदला नहीं क्यों वेष ? <BR> क्या अभी भी रात्रि है कुछ शेष ? <BR><br>
दे रही ऊषा नहीं वरदान,<br>मौन विहगों का अभी तो गान,<br>उठ पड़े, पर, जाग मेरे प्राण,<br>सुन रहा जीवन नया संदेश !<br>क्या अभी भी रात्रि है कुछ शेष ? <BR><br>
स्वप्न से मुझको नहीं है मोह,<br>कर्मरत मानव-हृदय की टोह,<br>जागता मेरा रहे नव देश !<br>क्या अभी भी रात्रि है कुछ शेष ? <BR/poem>
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