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|रचनाकार=पंकज सुबीर
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बहुत से नाम हैं उनके
धो डालता है सारी पहचान को,
व्यक्तिगत पहचान को,
और कर देता हैं शामिल भीड़ में, फलानों की ।की।
बहुत पीड़ादायी होता है
अपनी सारी पहचान को खोकर
फलाना आदमी हो जाना ।जाना।
यँ ही नहीं कह देते हम किसी को,
फलाना आदमी,
और ये फलानापन भी तुम्हारा नहीं है
यह तो हमारी सुविधा के लिए है,
ताकि जब तुम मरो , तो हम कह सकें
कि वो गंजा गंजा सा फलाना आदमी,
जो अब तक खुद को जिंदा समझता था
घिसट घिसट कर चलता,
लार, आंसू और पीब से बना
गंजा गंजा सा फलाना आदमी ।आदमी।
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