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लेखक: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
''यह देह टूटने वाली है, इस मिट्टी का कब तक प्रमाण ?<br>
मृत्तिका छोड ऊपर नभ में भी तो ले जाना है विमान .<br>
कुछ जुटा रहा सामान खमण्डल में सोपान बनाने को ,<br>
ये चार फुल फेंके मैंने, ऊपर की राह सजाने को .''<br>
<br>
''ये चार फुल हैं मोल किन्हीं कातर नयनों के पानी के ,<br>
ये चार फुल प्रच्छन्न दान हैं किसी महाबल दानी के .<br>
ये चार फुल, मेरा अदृष्ट था हुआ कभी जिनका कामी,<br>
ये चार फुल पाकर प्रसन्न हंसते होंगे अन्तर्यामी .''<br>
<br>
''समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का हैं ,<br>
ये खेल जीत से बडे क़िसी मकसद के दीवानों का हैं .<br>
जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं ,<br>
दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खडे ज़ो जीते हैं .''<br>
<br>
समझा न, सत्य ही, शल्य इसे, बोला ''प्रलाप यह बन्द करो ,<br>
हिम्मत हो तो लो करो समर,बल हो, तो अपना धनुष धरो .<br>
लो, वह देखो, वानरी ध्वजा दूर से दिखायी पडती है ,<br>
पार्थ के महारथ की घर्घर आवाज सुनायी पडती है .''<br>
<br>
''क्या वेगवान हैं अश्व ! देख विधुत् शरमायी जाती है ,<br>
आगे सेना छंट रही, घटा पीछे से छायी जाती है .<br>
राधेय ! काल यह पहंुच गया, शायक सन्धानित तूर्ण करो ,<br>
थे विकल सदा जिसके हित, वह लालसा समर की पूर्ण करो .''<br>
<br>
पार्थ को देख उच्छल - उमंग - पूरित उर - पारावार हुआ ,<br>
दम्भोलि-नाद कर कर्ण कुपित अन्तक-सा भीमाकार हुआ .<br>
वोला ''विधि ने जिस हेतु पार्थ ! हम दोनों का निर्माण किया ,<br>
जिस लिए प्रकृति के अनल-तत्त्व का हम दोनों ने पान किया .<br>
<br>
''जिस दिन के लिए किये आये, हम दोनों वीर अथक साधन ,<br>
आ गया भाग्य से आज जन्म-जन्मों का निर्धारित वह क्षण .<br>
आओ, हम दोनों विशिख-वह्नि-पूजित हो जयजयकार करें ,<br>
ममच्छेदन से एक दूसरे का जी-भर सत्कार करें .''<br>
<br>
''पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से अलग नहीं होना होगा ,<br>
हम दोनों में से किसी एक को आज यहीं सोना होगा .<br>
हो गया बडा अतिकाल, आज निर्णय अन्तिम कर लेना है ,<br>
शत्रु का या कि अपना मस्तक, काट कर यहीं धर देना है .''<br>
<br>
कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा रविकान्त-हृदय ,<br>
बोला, ''रे सारथि-पुत्र ! किया तू ने, सत्य ही योग्य निश्चय .<br>
पर कौन रहेगा यहां ? बात यह अभी बताये देता हूं ,<br>
धड पर से तेरा सीस मूढ ! ले, अभी हटाये देता हूं .''<br>
<br>
यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया ,<br>
अपने जानते विपक्षी को हत ही उसने अनुमान किया .<br>
पर, कर्ण झेल वह महा विशिक्ष, कर उठा काल-सा अट्टहास ,<br>
रण के सारे स्वर डूब गये, छा गया निनद से दिशाकाश .<br>
<br>
वोला, ''शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब गहन सत्कार रहा ;<br>
पर, बुरा न मानो, अगर आन कर मुझ पर वह बेकार रहा .<br>
मत कवच और कुण्डल विहीन, इस तन को मृदुल कमल समझो ,<br>
साधना-दीप्त वक्षस्थल को, अब भी दुर्भेद्य अचल समझो .''<br>
<br>
''अब लो मेरा उपहार, यही यमलोक तुम्हें पहुंचायेगा ,<br>
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें बस, इसी बार मिल जायेगा .''<br>
कह इस प्रकार राधेय अधर को दबा, रौद्रता में भरके ,<br>
हुङकार उठा घातिका शक्ति विकराल शरासन पर धरके .''<br>
<br>
संभलें जब तक भगवान्, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन ,<br>
तब तक रथ में ही, विकल, विध्द, मूच्र्छित हो गिरा पृथानन्दन .<br>
कर्ण का देख यह समर-शौर्य सङगर में हाहाकार हुआ ,<br>
सब लगे पूछने, ''अरे, पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ ?''<br>
<br>
पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर अर्जुन प्रबुध्द ;<br>
क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण के साथ मचाने द्विरथ-युध्द .<br>
प्रावृट्-से गरज-गरज दोनों, करते थे प्रतिभट पर प्रहार ,<br>
थी तुला-मध्य सन्तुलित खडी, लेकिन दोनों की जीत हार .<br>
<br>
इस ओर कर्ण र्मात्तण्ड-सदृश, उस ओर पार्थ अन्तक-समान ,<br>
रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय, हो उठा समर में मूर्तिमान .<br>
जूझता एक क्षण छोड, स्वत:, सारी सेना विस्मय-विमुग्ध ,<br>
अपलक होकर देखने लगी दो शितिकण्ठों का विकट युध्द .<br>
<br>
है कथा, नयन का लोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुरगण ,<br>
भर गया विमानों से तिल-तिल, कुरुभू पर कलकल-नदित-गगन .<br>
थी रुकी दिशा की सांस, प्रकृति के निखिल रुप तन्मय-गभीर ,<br>
ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ, नीचे नदियों का अचल नीर .<br>
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
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''यह देह टूटने वाली है, इस मिट्टी का कब तक प्रमाण ?<br>
मृत्तिका छोड ऊपर नभ में भी तो ले जाना है विमान .<br>
कुछ जुटा रहा सामान खमण्डल में सोपान बनाने को ,<br>
ये चार फुल फेंके मैंने, ऊपर की राह सजाने को .''<br>
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''ये चार फुल हैं मोल किन्हीं कातर नयनों के पानी के ,<br>
ये चार फुल प्रच्छन्न दान हैं किसी महाबल दानी के .<br>
ये चार फुल, मेरा अदृष्ट था हुआ कभी जिनका कामी,<br>
ये चार फुल पाकर प्रसन्न हंसते होंगे अन्तर्यामी .''<br>
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''समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का हैं ,<br>
ये खेल जीत से बडे क़िसी मकसद के दीवानों का हैं .<br>
जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं ,<br>
दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खडे ज़ो जीते हैं .''<br>
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समझा न, सत्य ही, शल्य इसे, बोला ''प्रलाप यह बन्द करो ,<br>
हिम्मत हो तो लो करो समर,बल हो, तो अपना धनुष धरो .<br>
लो, वह देखो, वानरी ध्वजा दूर से दिखायी पडती है ,<br>
पार्थ के महारथ की घर्घर आवाज सुनायी पडती है .''<br>
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''क्या वेगवान हैं अश्व ! देख विधुत् शरमायी जाती है ,<br>
आगे सेना छंट रही, घटा पीछे से छायी जाती है .<br>
राधेय ! काल यह पहंुच गया, शायक सन्धानित तूर्ण करो ,<br>
थे विकल सदा जिसके हित, वह लालसा समर की पूर्ण करो .''<br>
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पार्थ को देख उच्छल - उमंग - पूरित उर - पारावार हुआ ,<br>
दम्भोलि-नाद कर कर्ण कुपित अन्तक-सा भीमाकार हुआ .<br>
वोला ''विधि ने जिस हेतु पार्थ ! हम दोनों का निर्माण किया ,<br>
जिस लिए प्रकृति के अनल-तत्त्व का हम दोनों ने पान किया .<br>
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''जिस दिन के लिए किये आये, हम दोनों वीर अथक साधन ,<br>
आ गया भाग्य से आज जन्म-जन्मों का निर्धारित वह क्षण .<br>
आओ, हम दोनों विशिख-वह्नि-पूजित हो जयजयकार करें ,<br>
ममच्छेदन से एक दूसरे का जी-भर सत्कार करें .''<br>
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''पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से अलग नहीं होना होगा ,<br>
हम दोनों में से किसी एक को आज यहीं सोना होगा .<br>
हो गया बडा अतिकाल, आज निर्णय अन्तिम कर लेना है ,<br>
शत्रु का या कि अपना मस्तक, काट कर यहीं धर देना है .''<br>
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कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा रविकान्त-हृदय ,<br>
बोला, ''रे सारथि-पुत्र ! किया तू ने, सत्य ही योग्य निश्चय .<br>
पर कौन रहेगा यहां ? बात यह अभी बताये देता हूं ,<br>
धड पर से तेरा सीस मूढ ! ले, अभी हटाये देता हूं .''<br>
<br>
यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया ,<br>
अपने जानते विपक्षी को हत ही उसने अनुमान किया .<br>
पर, कर्ण झेल वह महा विशिक्ष, कर उठा काल-सा अट्टहास ,<br>
रण के सारे स्वर डूब गये, छा गया निनद से दिशाकाश .<br>
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वोला, ''शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब गहन सत्कार रहा ;<br>
पर, बुरा न मानो, अगर आन कर मुझ पर वह बेकार रहा .<br>
मत कवच और कुण्डल विहीन, इस तन को मृदुल कमल समझो ,<br>
साधना-दीप्त वक्षस्थल को, अब भी दुर्भेद्य अचल समझो .''<br>
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''अब लो मेरा उपहार, यही यमलोक तुम्हें पहुंचायेगा ,<br>
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें बस, इसी बार मिल जायेगा .''<br>
कह इस प्रकार राधेय अधर को दबा, रौद्रता में भरके ,<br>
हुङकार उठा घातिका शक्ति विकराल शरासन पर धरके .''<br>
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संभलें जब तक भगवान्, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन ,<br>
तब तक रथ में ही, विकल, विध्द, मूच्र्छित हो गिरा पृथानन्दन .<br>
कर्ण का देख यह समर-शौर्य सङगर में हाहाकार हुआ ,<br>
सब लगे पूछने, ''अरे, पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ ?''<br>
<br>
पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर अर्जुन प्रबुध्द ;<br>
क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण के साथ मचाने द्विरथ-युध्द .<br>
प्रावृट्-से गरज-गरज दोनों, करते थे प्रतिभट पर प्रहार ,<br>
थी तुला-मध्य सन्तुलित खडी, लेकिन दोनों की जीत हार .<br>
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इस ओर कर्ण र्मात्तण्ड-सदृश, उस ओर पार्थ अन्तक-समान ,<br>
रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय, हो उठा समर में मूर्तिमान .<br>
जूझता एक क्षण छोड, स्वत:, सारी सेना विस्मय-विमुग्ध ,<br>
अपलक होकर देखने लगी दो शितिकण्ठों का विकट युध्द .<br>
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है कथा, नयन का लोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुरगण ,<br>
भर गया विमानों से तिल-तिल, कुरुभू पर कलकल-नदित-गगन .<br>
थी रुकी दिशा की सांस, प्रकृति के निखिल रुप तन्मय-गभीर ,<br>
ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ, नीचे नदियों का अचल नीर .<br>
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