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लेखक: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
इतने में शर के कर्ण ने देखा जो अपना निषङग ,<br>
तरकस में से फुङकार उठा, कोई प्रचण्ड विषधर भूजङग ,<br>
कहता कि ''कर्ण! मैं अश्वसेन विश्रुत भुजंगो का स्वामी हूं,<br>
जन्म से पार्थ का शत्रु परम, तेरा बहुविधि हितकामी हूं .<br>
<br>
''बस, एक बार कर कृपा धनुष पर चढ शरव्य तक जाने दे ,<br>
इस महाशत्रु को अभी तुरत स्यन्दन में मुझे सुलाने दे .<br>
कर वमन गरल जीवन भर का सञ्चित प्रतिशोध उतारूंगा ,<br>
तू मुझे सहारा दे, बढक़र मैं अभी पार्थ को मारूंगा .''<br>
<br>
राधेय जरा हंसकर बोला, ''रे कुटिल! बात क्या कहता है ?<br>
जय का समस्त साधन नर का अपनी बांहों में रहता है .<br>
उस पर भी सांपों से मिल कर मैं मनुज, मनुज से युध्द करूं ?<br>
जीवन भर जो निष्ठा पाली, उससे आचरण विरुध्द करूं ?''<br>
<br>
''तेरी सहायता से जय तो मैं अनायास पा जाऊंगा ,<br>
आनेवाली मानवता को, लेकिन, क्या मुख दिखलाऊंगा ?<br>
संसार कहेगा, जीवन का सब सुकृत कर्ण ने क्षार किया ;<br>
प्रतिभट के वध के लिए सर्प का पापी ने साहाय्य लिया .''<br>
<br>
''हे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी ,<br>
सीमित वन में ही नहीं, बहुत बसते पुर-ग्राम-घरों में भी .<br>
ये नर-भुजङग मानवता का पथ कठिन बहुत कर देते हैं ,<br>
प्रतिबल के वध के लिए नीच साहाय्य सर्प का लेते हैं .''<br>
<br>
''ऐसा न हो कि इन सांपो में मेरा भी उज्ज्वल नाम चढे .<br>
पाकर मेरा आदर्श और कुछ नरता का यह पाप बढे .<br>
अर्जुन है मेरा शत्रु, किन्तु वह सर्प नहीं, नर ही तो है ,<br>
संघर्ष सनातन नहीं, शत्रुता इस जीवन भर ही तो है .''<br>
<br>
''अगला जीवन किसलिए भला, तब हो द्वेषान्ध बिगाडं मैं ?<br>
सांपो की जाकर शरण, सर्प बन क्यों मनुष्य को मारूं मैं ?<br>
जा भाग, मनुज का सहज शत्रु, मित्रता न मेरी पा सकता ,<br>
मैं किसी हेतु भी यह कलङक अपने पर नहीं लगा सकता .''<br>
<br>
काकोदार को कर विदा कर्ण, फिर बढा समर में गर्जमान,<br>
अम्बर अनन्त झङकार उठा, हिल उठे निर्जरों के विमान .<br>
तूफ़ान उठाये चला कर्ण बल से धकेल अरि के दल को,<br>
जैसे प्लावन की धार बहाये चले सामने के जल को.<br>
<br>
पाण्डव-सेना भयभीत भागती हुई जिधर भी जाती थी ;<br>
अपने पीछे दौडते हुए वह आज कर्ण को पाती थी .<br>
रह गयी किसी के भी मन में जय की किञ्चित भी नहीं आस ,<br>
आखिर, बोले भगवान् सभी को देख व्याकुल हताश .<br>
<br>
''अर्जुन ! देखो, किस तरह कर्ण सारी सेना पर टूट रहा ,<br>
किस तरह पाण्डवों का पौरुष होकर अशङक वह लूट रहा .<br>
देखो जिस तरफ़, उधर उसके ही बाण दिखायी पडते हैं ,<br>
बस, जिधर सुनो, केवल उसके हुङकार सुनायी पडते हैं .''<br>
<br>
''कैसी करालता ! क्या लाघव ! कितना पौरुष ! कैसा प्रहार !<br>
किस गौरव से यह वीर द्विरद कर रहा समर-वन में विहार !<br>
व्यूहों पर व्यूह फटे जाते, संग्राम उजडता जाता है ,<br>
ऐसी तो नहीं कमल वन में भी कुञ्जर धूम मचाता है .''<br>
<br>
''इस पुरुष-सिंह का समर देख मेरे तो हुए निहाल नयन ,<br>
कुछ बुरा न मानो, कहता हूं , मैं आज एक चिर-गूढ वचन .<br>
कर्ण के साथ तेरा बल भी मैं खूब जानता आया हूं ,<br>
मन-ही-मन तुझसे बडा वीर, पर इसे मानता आया हूं .''<br>
<br>
''औ' देख चरम वीरता आज तो यही सोचता हूं मन में ,<br>
है भी कोई, जो जीत सके, इस अतुल धनुर्धर को रण में ?<br>
मैं चक्र सुदर्शन धरूं और गाण्डीव अगर तू तानेगा ,<br>
तब भी, शायद ही, आज कर्ण आतङक हमारा मानेगा .''<br>
<br>
''यह नहीं देह का बल केवल, अन्तर्नभ के भी विवस्वान् ,<br>
हैं किये हुए मिलकर इसको इतना प्रचण्ड जाज्वल्यमान .<br>
सामान्य पुरुष यह नहीं, वीर यह तपोनिष्ठ व्रतधारी है ;<br>
मृत्तिका-पुञ्ज यह मनुज ज्योतियों के जग का अधिकारी है .''<br>
<br>
''कर रहा काल-सा घोर समर, जय का अनन्त विश्वास लिये ,<br>
है घूम रहा निर्भय, जानें, भीतर क्या दिव्य प्रकाश लिये !<br>
जब भी देखो, तब आंख गडी सामने किसी अरिजन पर है ,<br>
भूल ही गया है, एक शीश इसके अपने भी तन पर है .''<br>
<br>
''अर्जुन ! तुम भी अपने समस्त विक्रम-बल का आह्वान करो ,<br>
अर्जित असंख्य विद्याओं का हो सजग हृदय में ध्यान करो .<br>
जो भी हो तुममें तेज, चरम पर उसे खींच लाना होगा ,<br>
तैयार रहो, कुछ चमत्कार तुमको भी दिखलाना होगा .''<br>
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
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इतने में शर के कर्ण ने देखा जो अपना निषङग ,<br>
तरकस में से फुङकार उठा, कोई प्रचण्ड विषधर भूजङग ,<br>
कहता कि ''कर्ण! मैं अश्वसेन विश्रुत भुजंगो का स्वामी हूं,<br>
जन्म से पार्थ का शत्रु परम, तेरा बहुविधि हितकामी हूं .<br>
<br>
''बस, एक बार कर कृपा धनुष पर चढ शरव्य तक जाने दे ,<br>
इस महाशत्रु को अभी तुरत स्यन्दन में मुझे सुलाने दे .<br>
कर वमन गरल जीवन भर का सञ्चित प्रतिशोध उतारूंगा ,<br>
तू मुझे सहारा दे, बढक़र मैं अभी पार्थ को मारूंगा .''<br>
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राधेय जरा हंसकर बोला, ''रे कुटिल! बात क्या कहता है ?<br>
जय का समस्त साधन नर का अपनी बांहों में रहता है .<br>
उस पर भी सांपों से मिल कर मैं मनुज, मनुज से युध्द करूं ?<br>
जीवन भर जो निष्ठा पाली, उससे आचरण विरुध्द करूं ?''<br>
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''तेरी सहायता से जय तो मैं अनायास पा जाऊंगा ,<br>
आनेवाली मानवता को, लेकिन, क्या मुख दिखलाऊंगा ?<br>
संसार कहेगा, जीवन का सब सुकृत कर्ण ने क्षार किया ;<br>
प्रतिभट के वध के लिए सर्प का पापी ने साहाय्य लिया .''<br>
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''हे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी ,<br>
सीमित वन में ही नहीं, बहुत बसते पुर-ग्राम-घरों में भी .<br>
ये नर-भुजङग मानवता का पथ कठिन बहुत कर देते हैं ,<br>
प्रतिबल के वध के लिए नीच साहाय्य सर्प का लेते हैं .''<br>
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''ऐसा न हो कि इन सांपो में मेरा भी उज्ज्वल नाम चढे .<br>
पाकर मेरा आदर्श और कुछ नरता का यह पाप बढे .<br>
अर्जुन है मेरा शत्रु, किन्तु वह सर्प नहीं, नर ही तो है ,<br>
संघर्ष सनातन नहीं, शत्रुता इस जीवन भर ही तो है .''<br>
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''अगला जीवन किसलिए भला, तब हो द्वेषान्ध बिगाडं मैं ?<br>
सांपो की जाकर शरण, सर्प बन क्यों मनुष्य को मारूं मैं ?<br>
जा भाग, मनुज का सहज शत्रु, मित्रता न मेरी पा सकता ,<br>
मैं किसी हेतु भी यह कलङक अपने पर नहीं लगा सकता .''<br>
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काकोदार को कर विदा कर्ण, फिर बढा समर में गर्जमान,<br>
अम्बर अनन्त झङकार उठा, हिल उठे निर्जरों के विमान .<br>
तूफ़ान उठाये चला कर्ण बल से धकेल अरि के दल को,<br>
जैसे प्लावन की धार बहाये चले सामने के जल को.<br>
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पाण्डव-सेना भयभीत भागती हुई जिधर भी जाती थी ;<br>
अपने पीछे दौडते हुए वह आज कर्ण को पाती थी .<br>
रह गयी किसी के भी मन में जय की किञ्चित भी नहीं आस ,<br>
आखिर, बोले भगवान् सभी को देख व्याकुल हताश .<br>
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''अर्जुन ! देखो, किस तरह कर्ण सारी सेना पर टूट रहा ,<br>
किस तरह पाण्डवों का पौरुष होकर अशङक वह लूट रहा .<br>
देखो जिस तरफ़, उधर उसके ही बाण दिखायी पडते हैं ,<br>
बस, जिधर सुनो, केवल उसके हुङकार सुनायी पडते हैं .''<br>
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''कैसी करालता ! क्या लाघव ! कितना पौरुष ! कैसा प्रहार !<br>
किस गौरव से यह वीर द्विरद कर रहा समर-वन में विहार !<br>
व्यूहों पर व्यूह फटे जाते, संग्राम उजडता जाता है ,<br>
ऐसी तो नहीं कमल वन में भी कुञ्जर धूम मचाता है .''<br>
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''इस पुरुष-सिंह का समर देख मेरे तो हुए निहाल नयन ,<br>
कुछ बुरा न मानो, कहता हूं , मैं आज एक चिर-गूढ वचन .<br>
कर्ण के साथ तेरा बल भी मैं खूब जानता आया हूं ,<br>
मन-ही-मन तुझसे बडा वीर, पर इसे मानता आया हूं .''<br>
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''औ' देख चरम वीरता आज तो यही सोचता हूं मन में ,<br>
है भी कोई, जो जीत सके, इस अतुल धनुर्धर को रण में ?<br>
मैं चक्र सुदर्शन धरूं और गाण्डीव अगर तू तानेगा ,<br>
तब भी, शायद ही, आज कर्ण आतङक हमारा मानेगा .''<br>
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''यह नहीं देह का बल केवल, अन्तर्नभ के भी विवस्वान् ,<br>
हैं किये हुए मिलकर इसको इतना प्रचण्ड जाज्वल्यमान .<br>
सामान्य पुरुष यह नहीं, वीर यह तपोनिष्ठ व्रतधारी है ;<br>
मृत्तिका-पुञ्ज यह मनुज ज्योतियों के जग का अधिकारी है .''<br>
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''कर रहा काल-सा घोर समर, जय का अनन्त विश्वास लिये ,<br>
है घूम रहा निर्भय, जानें, भीतर क्या दिव्य प्रकाश लिये !<br>
जब भी देखो, तब आंख गडी सामने किसी अरिजन पर है ,<br>
भूल ही गया है, एक शीश इसके अपने भी तन पर है .''<br>
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''अर्जुन ! तुम भी अपने समस्त विक्रम-बल का आह्वान करो ,<br>
अर्जित असंख्य विद्याओं का हो सजग हृदय में ध्यान करो .<br>
जो भी हो तुममें तेज, चरम पर उसे खींच लाना होगा ,<br>
तैयार रहो, कुछ चमत्कार तुमको भी दिखलाना होगा .''<br>
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