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|रचनाकार=नरेश सक्सेना
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लाल रोशनी न होने का अंधेरा
अंधेरे को दोस्त बना लेना आसान है
उसे अपने पक्ष में भी किया जा सकता है
सिफर् सिर्फ उसपर भरोसा नहीं किया जा सकता।भरोसा रोशनी पर तो हरिगज़ हरगिज़ नहींहरी चीज़े चीज़ें लाल रोशनी में
काली नज़र आती हैं
दरअसल चीज़ें
वे उन रंगों की नहीं दिखतीं
जिन्हें सोख लेती हैं
बल्िक बल्कि उन रंगों की दिखाई देती हैं
जिन्हें लौटा रही होती हैं
वे हमेशा
अपनी अस्वीकृति के रंग ही दिखाती हैं
आैरों औरों की क्या कहूं मेरी बायीं आंख ही देखती है कुछ आैरऔरदायीं कुछ आैर और देखती हैबायां पांव जाता है कहीं आैर और दायां, कहीं आैर और जाता है पास आआे आओ दोस्तों अलग करें
सन्नाटे को सन्नाटे से
अंधेरे को अंधेरे से आैर और
नरेश को नरेश से।
 
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