भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
लो! दोनों पाँखें जलती हैं।
ये छुरे नहीं चलते, छिदती
जाती स्वदेश की छाती है,
लाठी खाकर भारतमाता
बेहोश हुई-सी जाती है।
चाहो तो डालो मार इसे,
पर, याद रहे, पछताओगे;
जो आज लड़ाई हार गये,
फिर जीत न उसको पाओगे।
आदर्श अगर जल खाक हुआ,
कुछ भी न शेष रह पायेगा;
मन्दिर के पास पहुँच कर भी
भारत खाली फिर जायेगा।
हिलती है पाँवों तले धरा?
तो थामो, इसको अचल करो,
आकाश नाचता है सम्मुख?
दृग मे त्राटक-साधना भरो।
साँसों से बाँधो महाकाश,
मारुतपति नाम तुम्हारा है;
नाचती मही को थिर करना
योगेश्वर! काम तुम्हारा है।
धीरज धर! धीरज! महासिन्धु!
मत वेग खोल अपने बल का;
सह कौन सकेगा तेज, कहीं
विस्फोट हुआ बड़वानल का?
नगराज! कहीं तू डोल उठा,
फिर कौन अचल रह पायेगा?
धरती ही नहीं, खमण्डल भी
यह दो टुकड़े हो जायेगा।
सच है, गिरती जब गाज कठिन,
भूधर का उर फट जाता है,
जब चक्र घूमता है, मस्तक
शिशुपालों का कट जाता है।
सच है, जल उठते महल,
बिखेरे जब अंगारे जाते हैं;
औ’ मचकर रहता कुरुक्षेत्र
जब चीर उतारे जाते हैं।
सम्मुख है राजसभा लेकिन,
प्रस्ताव अभी तक बाकी है;
केशव को लगना, स्यात्,
आखिरी घाव अभी तक बाकी है।
आदर्श दुहाई देता है,
धीरज का बाँध नहीं टूटे।
आदर्श दुहाई देता है,
धन्वा से वाण नहीं छूटे।
सपने जल जायें,
सावधान! ऐसी कोई भी बात न हो,
आदर्श दुहाई देता है,
उसके तन पर आघात न हो।
आदर्श माँगता मुक्त पंथ,
वह कोलाहल में जायेगा;
लपटों से घिरे महल में से
जीवित स्वदेश को लायेगा।
विश्वासी बन तुम खड़े रहो,
कंचन की आज समीक्षा है;
यह और किसी की नहीं, स्वयं
सीता की अग्नि-परीक्षा है।
दुनिया भी देखे अंधकार की
कैसी फौज उमड़ती है!
औ एक अकेली किरण
व्यूह में जाकर कैसे लड़ती है।**
'''रचनाकाल: १९४६'''
------
**नोआखाली और बिहार के दंगे के समय लिखित।
</poem>