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जिसे तोड़ दे अनायास ही
करुणा की हलकी ठोकर।
::’जय हो’, यंत्र पुरुष को दर्पण::एक फूटनेवाला दो;::हृदयहीन के लिए ठेस पर::हृदय टूटनेवाला दो।दो विषाद, निर्लज्ज मनुज यहग्लानिमग्न होना सीखे;विजय - मुकुट रुधिराक्त पहनकरहँसे नहीं, रोना सीखे।::दावानल - सा जला रहा::नर को अपना ही बुद्धि - अनल;::भरो हृदय का शून्य सरोवर,::दो शीतल करुणा का जल।जग में भीषण अन्धकार है,जगो, तिमिर - नाशक, जागो,जगो मंत्र - द्रष्टा, जगती केगौरव, गुरु, शासक, जागो।::गरिमा, ज्ञान, तेज, तप, कितने::सम्बल हाय, गये खोये;::साक्षी है इतिहास, वीर, तुम::कितना बल लेकर सोये।’जय हो’ खोलो द्वार, अमृत दो,हे जग के पहले दानी!यह कोलाहल शमित करेगीकिसी बुद्ध की ही बानी।
</poem>
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