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दे रहा है सत्य का संवाद,
सुन रहे सम्राट कोई नाद।
:"मन्द मानव! वासना के भृत्य!
:देख ले भर आँख निज दुष्कृत्य।
:यह धरा तेरी न थी उपनीत,
:शत्रु की त्यों ही नहीं थी क्रीत।
सृष्टि सारी एक प्रभु का राज,
स्वत्व है सबका प्रजा के व्याज।
मानकर प्रति जीव का अधिकार,
ढो रही धरणी सभी का भार।
:एक ही स्तन का पयस कर पान,
:जी रहे बलहीन औ बलवान।
:देखने को बिम्ब - रूप अनेक,
:किन्तु, दृश्याधार दर्पण एक
मृत्ति तो बिकती यहाँ बेदाम,
साँस से चलता मनुज का काम।
मृत्तिका हो याकि दीपित स्वर्ण,
साँस पाकर मूर्ति होती पूर्ण।
:राज या बल पा अमित अनमोल,
:साँस का बढ़ता न किंचित मोल।
:दीनता, दौर्बल्य का अपमान,
:त्यों घटा सकते न इसका मान।
:तू हुआ सब कुछ, मनुज लेकिन, रहा अब क्या न?
:जो नहीं कुछ बन सका, वह भी मनुज है, मान।
हाय रे धनलुब्ध जीव कठोर!
हाय रे दारुण! मुकुटधर भूप लोलुप, चोर।
साज कर इतना बड़ा सामान,
स्वत्व निज सर्वत्र अपना मान।
खड्ग - बल का ले मृषा आधार,
छीनता फिरता मनुज के प्राकृतिक अधिकार।
:चरण से प्रभु के नियम को चाप,
:तू बना है चाहता भगवान अपना आप।
 
</poem>
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