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Kavita Kosh से
:चरण से प्रभु के नियम को चाप,
:तू बना है चाहता भगवान अपना आप।
:भौं उठा पाये न तेरे सामने बलहीन,
:इसलिए ही तो प्रलय यह! हाय रे हिय-हीन!
:शमित करने को स्वमद अति ऊन,
:चाहिए तुझको मनुज का खून।
क्रूरता का साथ ले आख्यान,
जा चुके हैं, जा रहे हैं प्राण।
स्वर्ग में है आज हाहाकार,
चाहता उजड़ा, बसा संसार।
::भूमि का मानी महीप अशोक
::बाँटता फिरता चतुर्दिक शोक।
::"बाँटता सुत-शोक औ वैधव्य,
::बाँटता पशु को मनुज का क्रव्य।
लूटता है गोदियों के लाल,
लूटता सिन्दूर - सज्जित भाल।
यह मनुज - तन में किसी शक्रारि का अवतार,
लूट लेता है नगर की सिद्धि, सुख, श्रृंगार।
::शमित करने को स्वमद अति ऊन,
::चाहिए उसको मनुज का खून।"
आत्म - दंशन की व्यथा, परिताप, पश्वाताप,
डँस रहे सब मिल, उठा है भूप का मन काँप।
स्तब्धता को भेद बारम्बार,
आ रहा है क्षीण हाहाकार।
यह हृदय - द्रावक, करुण वैधव्य की चीत्कार!
यह किसी बूढ़े पिता की भग्न, आर्त्त पुकार!
यह किसी मृतवत्सला की आह!
आ रही करती हुई दिवदाह!
आ रही है दुर्बलों की हाय,
सूझता है त्राण का नृप को न एक उपाय!
आह की सेना अजेय विराट,
भाग जा, छिप जा कहीं सम्राट।
खड्ग से होगी नहीं यह भीत,
तू कभी इसको न सकता जीत।
सामने मन के विरूपाकार,
है खड़ा उल्लंग हो संहार।
षोडशी शुक्लाम्बराएँ आभरण कर दूर,
धूल मल कर धो रही हैं माँग का सिंदूर।
वीर - बेटों की चिताएँ देख ज्वलित समक्ष,
रो रहीं माँएँ हजारों पीटती सिर - वक्ष।
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