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<poem>
मंज़िलों का निशान कब देगा
आह को आसमान कब देगा

अज्मतों का निशान कब देगा
मेरे हक़ में बयान कब देगा

ज़ुल्म तो बेज़ुबान है लेकिन
ज़ख़्म को तू ज़ुबान कब देगा

सुबह सिजदे समेटे सोई है
पर अँधेरा अज़ान कब देगा

इन ठिठरते हुए उजालों को
धूप सा सायबान कब देगा

मौजे माही निगल न जाए कहीं
नूह सा निगाह्बान कब देगा

मुझ को जंगल दिया है जीने को
बुज़दिलों को मचान कब देगा

बस यही पूछना है उस से 'निज़ाम'
पर दिए हैं उड़ान कब देगा
</poem>
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