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तुषार-जाल में सहस्र हेम-दीप बालती,
समुद्र की तरंग में हिरण्य-धूलि डालती;
:सुनील चीर को सुवर्ण-बीच बोरती हुई,
:धरा के ताल-ताल में उसे निचोड़ती हुई;
:उषा के हाथ की विभा लुटा रहीं जवानियाँ।
घनों के पार बैठ तार बीन के चढ़ा रहीं,
सुमन्द्र नाद में मलार विश्व को सुना रहीं;
अभी कहीं लटें निचोड़ती, जमीन सींचती,
अभी बढ़ीं घटा में क्रुद्ध काल-खड्ग खींचती;
:पड़ीं व’ टूट देख लो, अजस्र वारिधार में,
:चलीं व बाढ़ बन, नहीं समा सकी कगार में।
:रुकावटों को तोड़-फोड़ छा रहीं जवानियाँ।
हटो तमीचरो, कि हो चुकी समाप्त रात है,
कुहेलिका के पार जगमगा रहा प्रभात है।
लपेट में समेटता रुकावटों को तोड़ के,
प्रकाश का प्रवाह आ रहा दिगन्त फोड़ के!
:विशीर्ण डालियाँ महीरुहों की टूटने लगीं;
:शमा की झालरें व’ टक्करों से फूटने लगीं।
:चढ़ी हुई प्रभंजनों प’ आ रहीं जवानियाँ।
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