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|रचनाकार=कुँअर बेचैन
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<poem>
गलियों में
चौराहों पर
घर-घर में मचे तुफ़ैल-सी।
बाल बिखेरे फिरती है
महँगाई किसी चुड़ैल सी।
सूखा पेटों के खेतों को
वर्षा नयनाकाश को
शीत- हडि्डयों की ठठरी को
जीवन दिया विनाश को
भूखी है हर साँस
जुती लेकिन कोल्हू के बैल-सी।
जो भी स्वप्न संत हैं
वे तो अब भी कुंठाग्रस्त हैं
जो झूठे, बदमाश, लफंगे
वे दुनिया में मस्त हैं
हर वेतन के घर बैठी है
रिश्वत किसी रखैल-सी।
सुरसा-सा मुँह फाड़ रही है
बाजारों में कीमतें
बारूदी दीवारों पर
बैठी हैं जीवन की छतें
टूट रही है आज ज़िंदगी
इक टूटी खपरैल-सी।
</poem>