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<poem>
मौज
जो तुम में है
मौज
जो तुम्हारी है
मौज
जो तुम से है
मौज वो तुम तो नहीं हो

अनगिनत मौजों से मिल कर
तुम बने हो
ये कहाँ कहता है कोई
अनगिनत मौजों के मुजीब तुम
तुम्हीं खालिक़
तुम्हीं मख्लूक और
तख्लीक भी तुम
तस्लीस की तहजीब का मरकज़ भी तुम हो
तुम ही तुम हो
मौज जो तुम में है
मौज जो तुम्हारी है
मौज जिस के होने का मुजीब सबब तुम
वो समुन्दर क्यूँ नहीं है
इस क़दर क्यूँ गरजते हो
बिफरते हो
एक छोटी मौज के छोटे से इस्तिफ्सार पर
तुम
तुम तो बहरे बेकराँ हो
तुम निगाहों में समां कर भी निगाहों से निहाँ हो
कितने पुरस्त्रार
यूँ बिफरना यूँ गरजना यूँ बिखरना
जेब कब देता है तुम को
इस तरह बेचैन क्यूँ हो
कहर ढाने
एक बेऔक़ात के अदना से इस्तिफ्सार
छोटी सी तमन्ना पर कि
जो तुम्हारी है
तुम्हीं से है
तुम्हीं में है
समुन्दर क्यूँ नहीं है
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