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सैलाब / शीन काफ़ निज़ाम

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<poem>
बज रही हैं
सुन रहे हो
दूर से
अब बहुत नज़दीक है
नज़दीक तर
फिर वही बिलकुल वही बरसों पुरानी
घड़घड़ाहट आओ
हम सब
फिर दुआ माँगें
हमारे ज़िस्म के
हर एक मू से
इस दफा तो पैर निकलें
हम सब अपने अनगिनत पैरों से
अब के
भाग निकलें
छोड़ कर
घर और घरौंदे
नदियाँ नाले परिंदे
क़िस्से
</poem>
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