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{{KKCatKavita}}
{{KKCatGeet}}<poem>विजयनी तेरी पताका।पताका!
तू नहीं है वस्त्र तू तो
 
मातृ भू का ह्रदय ही है,
 
प्रेममय है नित्य तू
 
हमको सदा देती अभय है,
 
कर्म का दिन भी सदा
 
विश्राम की भी शान्त राका।
 विजयनी तेरी पताका।पताका!
तू उडे तो रुक नहीं
 
सकता हमारा विजय रथ है
 
मुक्ति ही तेरी हमारे
 
 
लक्ष्य का आलोक पथ है
 
आँधियों से मिटा कब
 
तूने अमिट जो चित्र आँका!
 
विजयनी तेरी पताका!
 
छाँह में तेरी मिले शिव
 
और वह कन्याकुमारी,
 
निकट आ जाती पुरी के
 
द्वारिका नगरी हमारी,
 
पंचनद से मिल रहा है
 
आज तो बंगाल बाँका!
 
 
विजयनी तेरी पताका!
</poem>
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