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::'''निवेदन'''
अर्द्ध शताब्दि होने आई, जब मैंने ‘जयद्रथ-वध’ का लिखना प्रारम्भ किया था। उसके पश्चात् भी बहुत दिनों तक महाभारत के भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर मैंने अनेक रचनाएँ कीं। उन्हें लेकर कौरव-पाण्डवों की मूल कथा लिखने की बात भी मन में आती रही परन्तु उस प्रयास के पूरे होने में सन्देह रहने से वैसा उत्साह न होता था।
अब से ग्यारह-बारह वर्ष पहले पर-शासन के विद्वेष्टा के रूप में जब मुझे राजवन्दी बनना पड़ा, तब कारागार में ही सहसा वह विचार संकल्प में परिणत हो गया काम भी हाथ में ले लेने से इस पर पूरा समय न लगा सका। आगे भी अनेक कारणों से क्रम का निर्वान न कर सका।
मैथिलीशरण
::'''जय भारत'''
‘‘जीवन-यशस्-सम्मान-धन-सन्तान सुख मर्म के;
मुझको परन्तु शतांश भी लगते नहीं निज धर्म के !
::::युधिष्ठिर
 ::'''श्रीगणेशाय नमः'''::'''जय भारत'''
मनुज-मानस में तरंगित बहु विचारस्रोत,
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