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{{KKRachna
|रचनाकार=पवन करण
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<poem>
इन दिनों मैं अपने प्रेम को बहुत मुश्किल में पा रहा हूँ
उसे बचाना लगातार कठिन होता जा रहा है मेरे लिए
कागजों में मैं पिछड़ा कहलाता हूँ
मगर मैं जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो खुद को
दलितों से भी अधिक गया-बीता पाता हूँ, सोचता हूँ
दलित से भी गया-बीता हो सकता है कुछ तो लगता है
दलित से गया-बीता तो दलित ही हो सकता है
मेरे लिए यह कोई बात ही नहीं मगर मेरे आस-पास के लिए
यह ईर्ष्या की बात है कि मैं पिछड़ा हूँ
और सवर्ण लड़की से प्रेम करता हूँ कठिनतम
और वह सवर्ण लड़की भी मुझसे उतना ही प्रेम करती है
उसने ख़ुद को सौंपते वक़्त भी कभी इस वज़ह से
रोकने की कोशिश नहीं ख़ुद को कि मैं पिछड़ा हूँ
और मुझे उसे सब कुछ नहीं सौंप देना चाहिए अपना
कुछ तो बचाकर रखना चाहिए अपने पास
ताकि रहे कुछ तो अन्तर बाक़ी उस वक़्त मुझमें और उसमें
इन दिनों हमारे बीच जो विकट समस्या
आ खड़ी हुई है वह न तो उसके परिवार और समाज की
इस सनातन सवर्ण आपत्ति के कारण है
कि मैं पिछड़ा एक सवर्ण लड़की से प्रेम
करने की हिमाकत कैसे कर सकता हूँ
मेरी हिम्मत तो उसकी तरफ आँख उठाकर
देखने की भी नहीं होनी चाहिए और मैं हूँ कि
उसे लिये दुनिया भर में डोलता हूँ
मात्र इस वज़ह से ही अब तक उन्हें मुझे पेड़ से
बाँधकर गोली मार देनी चाहिए थी
या सबके बीच मेरा मुँह काला करके
जूते मारते हुए सरे राह घुमाना चाहिए था
मेरे घर में आग लगा देना चाहिए थी
मेरी माँ और बहनों से बलात्कार कर दिया जाना चाहिए था
और मेरे पिता और भाइयों की भी वही दुर्गति
करनी चाहिए थी जो इस प्रेम की वज़ह से
मेरी हो जानी चाहिए थी, संयोग है कि
अब तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है मेरे साथ
हम दोनों बेधड़क प्रेम कर रहे हैं एक दूसरे से
जो समस्या हमारे बीच आ खड़ी हुई
है वह मेरी छोटी जात को लेकर नहीं
मेरी जात को दिए जाने वाले आरक्षण को लेकर है
जिसकी वह सख़्त विरोधी है और मैं उसका उदार समर्थक
हम दोनों के बीच प्रेम के बाद दोनों की ज़रूरत ही है जो मुझे
आरक्षण का समर्थक और उसे विरोधी बनाती है
क्या चीज़ है ये ज़रूरत भी जिसके
बारे में किसी से ये अपेक्षा की जाए कि वह
अपनी ज़रूरतें कुछ कम कर ले,
थोड़ी मिल-बाँट ले तो मुश्किल
मैं इन दिनों मुश्किल में हूँ और उसके
आक्रमणों से ख़ुद को बचाने और उतने में ही जितना वह
आरक्षण को समझती है उसे समझाने में ही लगातार
भिड़ा रहता हूँ, सबकी तरफ़ जब वह भी कहती है
इस मामले में मेरे और तुम्हारे विचार
कभी नहीं मिल सकते, उन्हें रुपया-पैसा दो न
ताकि वे प्रतियोगिता लायक बन सकें
आरक्षण की ज़रूरत क्या है ?
सालों में अकल है नहीं तो क्या करेंगे, देने से अकल
तो आ नहीं जाएगी, रहेंगे तो वही के वही
साले जूठन खोर, बगल से निकल जाए तो
देर तक चमड़े की गन्ध नहीं जाती
जब इतने आक्रामक होकर आरक्षण-विरोध
और उनके बारे में बोल रही होती है तो मुझे लगता है
पता नहीं आज से मुझे ये चूमेगी भी या नहीं
ऐसे ही डॉक्टर बनेंगे तो मरीज़ों का क्या होगा
बताओ, अब तुम बताओ
तुम्हारे पास इस बात का कोई जवाब है
तब मैं डरते-डरते उससे कहता हूँ
मगर किसी दलित-डॉक्टर ने तो किसी मरीज़ के पेट में
आज तक कैंची या तौलिया नहीं छोड़ी
तब वह और गुस्साते हुए कहती है
साले सर्जन बन पाएँ तब न
यही तो मैं तुमसे कहना चाहता हूँ कि मैंने
किसी दलित-डॉक्टर सर्जन के बारे में नहीं सुना
फिर कौशल तो अभ्यास से पैदा होता है भाई
अच्छा बड़ा पक्ष ले रहे हो उनका, मगर आगे वह
कुछ नहीं कहती, मगर मैं डरता हूँ जो आज तक
उसने नहीं कहा किसी दिन वो ये न कह दे
पक्ष क्यों नहीं लोगे
आख़िर तुम भी तो उन्हीं में से एक हो न
पता है ये अफ़सर भले ही बन जाते हो
मगर नीति-निर्धारण में कोई इन्हें पूछता भी नहीं
साले एक तरफ़ चुपचाप बैठे रहते हैं
कुछ कहते भी हैं तो डपट दिया जाता है
अरे साहस और समझ आरक्षण देने से नहीं आ जाती
परम्परा से आती है और परम्परा तो होती है बस
बाज़ार में नहीं मिलती समझें साले! नीच! हरामखोर!
हराम हम मरे जा रहे हैं पढ़-पढ़ के मरे
और इन्हें बिना कुछ करे-धरे ही सब हासिल
तब तो ये और भी बुरा व्यवहार होता है उनकी आवाज़
हर जगह दबा दी जाती है तो क्या मतलब उन्हें
आरक्षण की जगह रुपया-पैसा दिये जाने का
वे हमारे ही लोग हैं भाई
वह तमतमा कर कहती है बने रहे हमारे लोग
आरक्षण नहीं होना चाहिए तो नहीं होना चाहिए बस
समझे इस मामले में सब बराबर इन्हें सुविधा दो
रुपया-पैसा दो और कहो सबके बीच आयें और
ख़ुद को साबित करें समझे, जब मैं कहता हूँ नहीं यह
ठीक नहीं तो वह तमतमाकर कहती है क्यों ठीक नहीं
अरे भाई! अगर थाली में भरे लड्डुओं को
ये पचास तुम्हारे और पचास तुम्हारे
बराबर से बाँट दिया जाए तो क्या बुराई, तुम तो
चाहती हो उन्हें खुले में रख दिया जाए
और कहा जाए जिसमें हिम्मत हो वो उठा ले
अब तुम्हीं बताओ लड्डू भी रखने वाले तुम
लाठियाँ भी तुम्हारी और दूसरे तरफ़ वे नंगे-निहत्थे निर्धन
इतना सुनते ही वह भड़क उठती है
अच्छा वे नंगे-निहत्थे हैं तो क्या हमारी वज़ह से हैं
अपने कर्मों की वज़ह से हैं, साले! नीच!
क्या हम सवर्णों में ग़रीब नहीं होते?
क्या अकेले वे ही निर्धन हैं?
तब मैं उससे कहता हूँ- कौन कहता है
सवर्णों में कोई ग़रीब नहीं होता है
मगर एक बात बताऊँ, सवर्णों में ग़रीब तो होते हैं
मगर वे ग़रीब दलित नहीं होते
वे ग़रीब नीच, अछूत और हरिजन नहीं होते
वे ग़रीब होने के बाद भी सवर्ण ही होते हैं
मैं चुपचाप देर तक उसकी बात सुनता रहता हूँ
फिर देर तक मेरे और उसके बीच ख़ामोशी
पसरी रहती है मगर मैं भीतर ही भीतर सकपकाता रहता हूँ
कहीं वह आज के बाद मेरा तुमसे कोई रिश्ता नहीं
यह कहते हुए अपना बैग उठाकर चल न दे
उसके तमाम विरोधी तर्कों-कुतर्कों को लगातार
झेलने के बीच जब मैं कहता हूँ-
अच्छा सुनो, जहाँ तक आरक्षण विरोध का
प्रश्न है वह मेरे आगे तो ठीक
तुम यह विरोध राज्य प्रशासनिक सेवा की परीक्षा
जिसकी तैयारी में तुम पागल जैसी हो, में
दर्ज़ मत कर आना समझे
वहाँ शासन की मंशा के अनुसार ही दिखना
हाँ, वो तो मैं समझती हूँ मुझे बार-बार बताने की ज़रूरत नहीं
मगर आरक्षण नहीं होना चाहिए तो नहीं होना चाहिए, बस
इस मामले में मेरी और तुम्हारी
समझ कभी नहीं मिल सकती
साला! मुझे एक बार मौका मिल जाए बस
इन्हें मार मारकर ठीक
और आरक्षण ख़त्म न कर दिया तो मेरा नाम नहीं
आरक्षण को लेकर उसके भीतर से बहकर
बाहर निकलती नफ़रत में मैं कई दफ़े
उड़ते-उड़ते बचता हूँ
जब भी बचता हूँ बचते हुए ज़रा
कबीर के कहे को इस तरह कहना नहीं भूलता
आरक्षण गली अति साँकरी जामे प्रेम फँस जाए।
</poem>