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<poem>
ज़मीन से रह गया दूर आसमान कितना
सितारा अपने सफ़र में है खुश गुमान कितना

परिंदा पैकाँ ब दोश परवाज़ कर रहा है
रहा है उसको ख़्याल ए सय्यादगान कितना

हवा का रुख देख कर समंदर से पूछना है
उठायें अब कश्तियों पे हम बादबान कितना

बहार में खुशबुओं का नाम ओ नसब था जिससे
वही शजर आज हो गया बेनिशान कितना

गिरे अगर आइना तो इक ख़ास ज़ाविये से
वर्ना हर अक्स को रहे खुद पे मान कितना

बिना किसी आस के उसी तरह जी रहा है
बिछड़ने वालों में था कोई सख्तजान कितना

वो लोग क्या चल सकेंगे जो उँगलियों पे सोचें
सफ़र में है धूप किस क़दर सायबान कितना
</poem>
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