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{{KKRachna
|रचनाकार=रंजना जायसवाल
|संग्रह=मछलियाँ देखती हैं सपने / रंजना जायसवाल
}}
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<poem>
अपने ही
अंदर से फूटती
कस्तूरी-गंध से
बेचैन होकर
भागी थी
तुम तक
किन्तु
तृष्णा से विकल हो
ख़त्म हो गई अन्ततः
क्योंकि वँहा सिर्फ़
मरीचिका थी
तुम न थे...।
</poem>
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|रचनाकार=रंजना जायसवाल
|संग्रह=मछलियाँ देखती हैं सपने / रंजना जायसवाल
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अपने ही
अंदर से फूटती
कस्तूरी-गंध से
बेचैन होकर
भागी थी
तुम तक
किन्तु
तृष्णा से विकल हो
ख़त्म हो गई अन्ततः
क्योंकि वँहा सिर्फ़
मरीचिका थी
तुम न थे...।
</poem>