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लेखक: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
'जहर की कीच में ही आ गये जब ,<br>
कलुष बन कर कलुष पर छा गये जब ,<br>
दिखाना दोष फिर क्या अन्य जन में ,<br>
अहं से फूलना क्या व्यर्थ मन में ?''<br>
<br>
''सुयोधन को मिले जो फल किये का ,<br>
कुटिल परिणाम द्रोहानल पिये का ,<br>
मगर, पाण्डव जहां अब चल रहे हैं ,<br>
विकट जिस वासना में जल रहे हैं ,''<br>
<br>
''अभी पातक बहुत करवायेगी वह ,<br>
उन्हें जानें कहां ले जायेगी वह .<br>
न जानें, वे इसी विष से जलेंगे ,<br>
कहीं या बर्फ में जाकर गलेंगे .''<br>
<br>
''सुयोधन पूत या अपवित्र ही था ,<br>
प्रतापी वीर मेरा मित्र ही था .<br>
किया मैंने वही, सत्कर्म था जो ,<br>
निभाया मित्रता का धर्म था जो .''<br>
<br>
''नहीं किञ्चित् मलिन अन्तर्गगन है ,<br>
कनक-सा ही हमारा स्वच्छ मन है ;<br>
अभी भी शुभ्र उर की चेतना है ,<br>
अगर है, तो यही बस, वेदना है .''<br>
<br>
''वधूजन को नहीं रक्षण दिया क्यों ?<br>
समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों ?<br>
न कोई योग्य निष्कृति पा रहा हूं ,<br>
लिये यह दाह मन में जा रहा हूं .''<br>
<br>
''विजय दिलवाइये केशव! स्वजन को ,<br>
शिथिल, सचमुच, नहीं कर पार्थ! मन को .<br>
अभय हो बेधता जा अंग अरि का ,<br>
द्विधा क्या, प्र्राप्त है जब संग हरि का !''<br>
<br>
''मही! लै सोंपता हूं आप रथ मैं ,<br>
गगन में खोजता हूं अन्य पथ मैं .<br>
भले ही लील ले इस काठ को तू ,<br>
न पा सकती पुरुष विभ्राट को तू .''<br>
<br>
''महानिर्वाण का क्षण आ रहा है, नया आलोक-स्यन्दन आ रहा है ;<br>
तपस्या से बने हैं यन्त्र जिसके, कसे जप-याग से हैं तन्त्र जिसके ;<br>
जुते हैंर् कीत्तियों के वाजि जिसमें, चमकती है किरण की राजि जिसमें ;<br>
हमारा पुण्य जिसमें झूलता है, विभा के पद्म-सा जो फूलता है .''<br>
<br>
''रचा मैनें जिसे निज पुण्य-बल से, दया से, दान से, निष्ठा अचल से ;<br>
हमारे प्राण-सा ही पूत है जो, हुआ सध्दर्म से उद्भूत है जो ;<br>
न तत्त्वों की तनिक परवाह जिसको, सुगम सर्वत्र ही है राह जिसको ;<br>
गगन में जो अभय हो घूमता है, विभा की ऊर्मियों पर झूमता है .''<br>
<br>
''अहा! आलोक-स्यन्दन आन पहंुचा ,<br>
हमारे पुण्य का क्षण आन पहुंचा .<br>
विभाओ सूर्य की! जय-गान गाओ ,<br>
मिलाओ, तार किरणों के मिलाओ .''<br>
<br>
''प्रभा-मण्डल! भरो झंकार, बोलो !<br>
जगत् की ज्योतियो! निज द्वार खोलो !<br>
तपस्या रोचिभूषित ला रहा हंू ,<br>
चढा मै रश्मि-रथ पर आ रहा हंू .''<br>
<br>
गगन में बध्द कर दीपित नयन को ,<br>
किये था कर्ण जब सूर्यस्थ मन को ,<br>
लगा शर एक ग्रीवा में संभल के ,<br>
उडी ऊपर प्रभा तन से निकल के !<br>
<br>
गिरा मस्तक मही पर छिन्न होकर !<br>
तपस्या-धाम तन से भिन्न होकर.<br>
छिटक कर जो उडा आलोक तन से ,<br>
हुआ एकात्म वह मिलकर तपन से !<br>
<br>
उठी कौन्तेय की जयकार रण में ,<br>
मचा घनघोर हाहाकार रण में .<br>
सुयोधन बालकों-सा रो रहा था !<br>
खुशी से भीम पागल हो रहा था !<br>
<br>
फिरे आकाश से सुरयान सारे ,<br>
नतानन देवता नभ से सिधारे .<br>
छिपे आदित्य होकरर् आत्त घन में ,<br>
उदासी छा गयी सारे भुवन में .<br>
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
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'जहर की कीच में ही आ गये जब ,<br>
कलुष बन कर कलुष पर छा गये जब ,<br>
दिखाना दोष फिर क्या अन्य जन में ,<br>
अहं से फूलना क्या व्यर्थ मन में ?''<br>
<br>
''सुयोधन को मिले जो फल किये का ,<br>
कुटिल परिणाम द्रोहानल पिये का ,<br>
मगर, पाण्डव जहां अब चल रहे हैं ,<br>
विकट जिस वासना में जल रहे हैं ,''<br>
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''अभी पातक बहुत करवायेगी वह ,<br>
उन्हें जानें कहां ले जायेगी वह .<br>
न जानें, वे इसी विष से जलेंगे ,<br>
कहीं या बर्फ में जाकर गलेंगे .''<br>
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''सुयोधन पूत या अपवित्र ही था ,<br>
प्रतापी वीर मेरा मित्र ही था .<br>
किया मैंने वही, सत्कर्म था जो ,<br>
निभाया मित्रता का धर्म था जो .''<br>
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''नहीं किञ्चित् मलिन अन्तर्गगन है ,<br>
कनक-सा ही हमारा स्वच्छ मन है ;<br>
अभी भी शुभ्र उर की चेतना है ,<br>
अगर है, तो यही बस, वेदना है .''<br>
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''वधूजन को नहीं रक्षण दिया क्यों ?<br>
समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों ?<br>
न कोई योग्य निष्कृति पा रहा हूं ,<br>
लिये यह दाह मन में जा रहा हूं .''<br>
<br>
''विजय दिलवाइये केशव! स्वजन को ,<br>
शिथिल, सचमुच, नहीं कर पार्थ! मन को .<br>
अभय हो बेधता जा अंग अरि का ,<br>
द्विधा क्या, प्र्राप्त है जब संग हरि का !''<br>
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''मही! लै सोंपता हूं आप रथ मैं ,<br>
गगन में खोजता हूं अन्य पथ मैं .<br>
भले ही लील ले इस काठ को तू ,<br>
न पा सकती पुरुष विभ्राट को तू .''<br>
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''महानिर्वाण का क्षण आ रहा है, नया आलोक-स्यन्दन आ रहा है ;<br>
तपस्या से बने हैं यन्त्र जिसके, कसे जप-याग से हैं तन्त्र जिसके ;<br>
जुते हैंर् कीत्तियों के वाजि जिसमें, चमकती है किरण की राजि जिसमें ;<br>
हमारा पुण्य जिसमें झूलता है, विभा के पद्म-सा जो फूलता है .''<br>
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''रचा मैनें जिसे निज पुण्य-बल से, दया से, दान से, निष्ठा अचल से ;<br>
हमारे प्राण-सा ही पूत है जो, हुआ सध्दर्म से उद्भूत है जो ;<br>
न तत्त्वों की तनिक परवाह जिसको, सुगम सर्वत्र ही है राह जिसको ;<br>
गगन में जो अभय हो घूमता है, विभा की ऊर्मियों पर झूमता है .''<br>
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''अहा! आलोक-स्यन्दन आन पहंुचा ,<br>
हमारे पुण्य का क्षण आन पहुंचा .<br>
विभाओ सूर्य की! जय-गान गाओ ,<br>
मिलाओ, तार किरणों के मिलाओ .''<br>
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''प्रभा-मण्डल! भरो झंकार, बोलो !<br>
जगत् की ज्योतियो! निज द्वार खोलो !<br>
तपस्या रोचिभूषित ला रहा हंू ,<br>
चढा मै रश्मि-रथ पर आ रहा हंू .''<br>
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गगन में बध्द कर दीपित नयन को ,<br>
किये था कर्ण जब सूर्यस्थ मन को ,<br>
लगा शर एक ग्रीवा में संभल के ,<br>
उडी ऊपर प्रभा तन से निकल के !<br>
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गिरा मस्तक मही पर छिन्न होकर !<br>
तपस्या-धाम तन से भिन्न होकर.<br>
छिटक कर जो उडा आलोक तन से ,<br>
हुआ एकात्म वह मिलकर तपन से !<br>
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उठी कौन्तेय की जयकार रण में ,<br>
मचा घनघोर हाहाकार रण में .<br>
सुयोधन बालकों-सा रो रहा था !<br>
खुशी से भीम पागल हो रहा था !<br>
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फिरे आकाश से सुरयान सारे ,<br>
नतानन देवता नभ से सिधारे .<br>
छिपे आदित्य होकरर् आत्त घन में ,<br>
उदासी छा गयी सारे भुवन में .<br>
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