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"रुग्ण ही हों तात हे भगवान?"
भरत सिहरे शफर-वारि-समान।
ली उन्होंने एक लम्बी साँस,
हृदय में मानों गड़ी हो गाँस।
 
"सूत तुम खींचे रहो कुछ रास,
कर चुके हैं अश्व अति आयास।
या कि ढीली छोड़ दो, हा हन्त,
हो किसी विध इस अगति का अन्त!
जब चले थे तुम यहाँ से दूत,
तब पिता क्या थे अधिक अभिभूत?
पहुँच ही अब तो गये हम लोग,
ठीक कह दो, था उन्हें क्या रोग?"
दूत बोला उत्तरीय समेट--
"कर सका था मैं न प्रभु से भेट।
आप आगे आ रहा जो वीर,
आप हों उसके लिए न अधीर।"
 
प्राप्त इतने में हुआ पुर-द्वार,
प्रहरियों का मौन विनयाचार।
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