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<poem>
क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी
पर मैं क्या करती कि ज़ंजीर तिरे नाम की थी

जिसके माथे पे मिरे बख्त का तारा चमका
चाँद के डूबने की बात उसी शाम की थी

मैंने हाथों को ही पतवार बनाई वर्ना
एक टूटी हुई कश्ती मेरे किस काम की थी

वो कहानी कि सभी सुईयां निकली भी न थीं
फ़िक्र हर शख़्स को शहजादी के अंजाम की थी

ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी

बोझ उठाये हुए फिरती है हमारा अब तक
ए ज़मीं माँ तेरी ये उम्र तो आराम की थी
</poem>
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