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<poem>
घर की याद है और दरपेश सफ़र भी है
चौथी सिम्त निकल जाने का डर भी है

लम्हा ए रुखसत के गूंगे सन्नाटे की
एक गवाह तो उसकी चश्म-ए-तर भी है

इश्क को खुद दरयुजागरी मंज़ूर नहीं
माँगने पर आये तो कासा-ए-सर भी है

नए सफ़र पे चलते हुए ये ध्यान रहे
रस्ते में दीवार से पहले दर भी है

बहुत से नामों को अपने सीने में छुपाए
जली हुई बस्ती में एक शज़र भी है
</poem>
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