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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार: [[=अज्ञेय]]}}[[Category:कविताएँलम्बी रचना]]{{KKPageNavigation|आगे=असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 2|सारणी=असाध्य वीणा / अज्ञेय}}[[Categoryचित्र:अज्ञेयVichitra Veena1.jpg]]<poem>आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह ! राजा ने आसन दिया। कहा : "कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप। भरोसा है अब मुझ को साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"
राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले : "यह वीणा उत्तराखंड के गिरिमेरे हार गये सब जाने-प्रान्तर से<br>माने कलावन्त, --घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --<br>बहुत समय पहले आयी थी।<br>सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर, पूरा तो इतिहास कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न जान सके हम :<br>साध सका। किन्तु सुना अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी। पर मेरा अब भी है<br>विश्वास कृच्छ-तप वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस<br>का व्यर्थ नहीं था। वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी। अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था जब सच्चा स्वर--<br>उसके कानों सिद्ध गोद में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपनेलेगा। तात! प्रियंवद! लो,<br>यह सम्मुख रही तुम्हारे कंधों पर बादल सोते थेवज्रकीर्ति की वीणा,<br>उसकी करि-शुंडों सी डालें<br><br>यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह : सब उदग्र, पर्युत्सुक, जन मात्र प्रतीक्षमाण !"
[[चित्र:Veena_instrumentVichitra Veena1.jpg]]<br><br>