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असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 1

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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार: [[=अज्ञेय]]}}[[Category:कविताएँलम्बी रचना]]{{KKPageNavigation|आगे=असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 2|सारणी=असाध्य वीणा / अज्ञेय}}[[Categoryचित्र:अज्ञेयVichitra Veena1.jpg]]<poem>आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह ! राजा ने आसन दिया। कहा : "कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप। भरोसा है अब मुझ को साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~लघु संकेत समझ राजा का गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा, साधक के आगे रख उसको, हट गये। सभा की उत्सुक आँखें एक बार वीणा को लख, टिक गयीं प्रियंवद के चेहरे पर।
[[चित्र"यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से --घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी -- बहुत समय पहले आयी थी। पूरा तो इतिहास न जान सके हम :Veena_instrument.jpg]]किन्तु सुना है वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था -- उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने, कंधों पर बादल सोते थे, उसकी करि-शुंडों सी डालें
आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह !<br>राजा ने आसन दिया। कहा [[चित्र:<br>"कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप।<br>भरोसा है अब मुझ को<br>साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"<br><br>Vichitra Veena1.jpg]]
लघु संकेत समझ राजा हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का<br>कर लेती थीं परित्राण, गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणाकोटर में भालू बसते थे,<br>साधक के आगे रख उसकोकेहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे। और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक, हट गये।<br>सभा उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था। उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने सारा जीवन इसे गढा़ : हठ-साधना यही थी उस साधक की उत्सुक आँखें<br>-- एक बार वीणा को लखपूरी हुई, टिक गयीं<br>प्रियंवद के चेहरे पर।<br><br>साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।"
राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले : "यह वीणा उत्तराखंड के गिरिमेरे हार गये सब जाने-प्रान्तर से<br>माने कलावन्त, --घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --<br>बहुत समय पहले आयी थी।<br>सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर, पूरा तो इतिहास कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे जान सके हम :<br>साध सका। किन्तु सुना अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी। पर मेरा अब भी है<br>विश्वास कृच्छ-तप वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस<br>का व्यर्थ नहीं था। वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी। अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था जब सच्चा स्वर--<br>उसके कानों सिद्ध गोद में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपनेलेगा। तात! प्रियंवद! लो,<br>यह सम्मुख रही तुम्हारे कंधों पर बादल सोते थेवज्रकीर्ति की वीणा,<br>उसकी करि-शुंडों सी डालें<br><br>यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह : सब उदग्र, पर्युत्सुक, जन मात्र प्रतीक्षमाण !"
[[चित्र:Veena_instrumentVichitra Veena1.jpg]]<br><br>
हिमकेश-वर्षा से पूरे वनकम्बली गुफा-यूथों का गेह ने खोला कम्बल। धरती पर चुपचाप बिछाया। वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर लेती थीं परित्राणप्राण खींच,<br>कोटर में भालू बसते थेकरके प्रणाम,<br>केहरि उसके वल्कल अस्पर्श छुअन से कंधे खुजलाने आते थे।<br>और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,<br>उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।<br>उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने<br>सारा जीवन इसे गढा़ :<br>हठ-साधना यही थी उस साधक की --<br>वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।"<br><br>छुए तार।
राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले धीरे बोला :<br>"राजन! पर मैं तो "मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्तहूँ नहीं,<br>सबकी विद्या हो गई अकारथशिष्य, दर्प चूर,<br>साधक हूँ-- कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।<br>जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी। अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।<br>पर मेरा अब भी है विश्वास<br>कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।<br>! वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।<br>इसे जब सच्चा स्वरप्राचीन किरीटी-सिद्ध गोद में लेगा।<br>ताततरु! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे<br>वज्रकीर्ति की अभिमन्त्रित वीणा,<br>! यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :<br>सब उदग्र, पर्युत्सुक,<br>जन ध्यान-मात्र प्रतीक्षमाण !इनका तो गदगद कर देने वाला है।"<br><br>
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]<br><br>चुप हो गया प्रियंवद। सभा भी मौन हो रही।
केशवाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया। धीरे-कम्बली गुफाधीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया। सभा चकित थी -गेह ने खोला कम्बल।<br>- अरे, प्रियंवद क्या सोता है? केशकम्बली अथवा होकर पराभूत धरती झुक गया तार पर चुपचाप बिछाया।<br>? वीणा उस सचमुच क्या है असाध्य? पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,<br>उस स्पन्दित सन्नाटे में मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा-- करके प्रणामनहीं,<br>अपने को शोध रहा था। अस्पर्श छुअन से छुए तार।<br><br>सघन निविड़ में वह अपने को
धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो<br>कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--<br>जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।<br>वज्रकीर्ति!<br>प्राचीन किरीटी-तरु!<br>अभिमन्त्रित वीणा!<br>ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"<br><br> चुप हो गया प्रियंवद।<br>सभा भी मौन हो रही।<br><br> वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।<br>धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।<br>सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?<br>केशकम्बली अथवा होकर पराभूत<br>झुक गया तार पर?<br>वीणा सचमुच क्या है [[असाध्य?<br>पर उस स्पन्दित सन्नाटे में<br>मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--<br/ अज्ञेय / पृष्ठ 2|अगला भाग >नहीं, अपने को शोध रहा था।<br>]]सघन निविड़ में वह अपने को<br><br/poem>
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