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लेखक: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
युधिष्ठिर प्राप्त कर निस्तार भय से ,<br>
प्रफुल्लित हो, बहुत दुर्लभ विजय से ,<br>
दृगों में मोद के मोती सजाये ,<br>
बडे ही व्यग्र हरि के पास आये .<br>
<br>
कहा, ''केशव! बडा था त्रास मुझको ,<br>
नहीं था यह कभी विश्वास मुझको ,<br>
कि अर्जुन यह विपद भी हर सकेगा ,<br>
किसी दिन कर्ण रण में मर सकेगा .''<br>
<br>
''इसी के त्रास में अन्तर पगा था ,<br>
हमें वनवास में भी भय लगा था .<br>
कभी निश्चिन्त मैं क्या हो सका था ?<br>
न तेरह वर्ष सुख से सो सका था .''<br>
<br>
''बली योध्दा बडा विकराल था वह !<br>
हरे! कैसा भयानक काल था वह ?<br>
मुषल विष में बुझे थे, बाण क्या थे !<br>
शिला निर्मोघ ही थी, प्राण क्या थे !''<br>
<br>
''मिला कैसे समय निर्भीत है यह ?<br>
हुई सौभाग्य से ही जीत है यह ?<br>
नहीं यदि आज ही वह काल सोता ,<br>
न जानें, क्या समर का हाल होता ?''<br>
<br>
उदासी में भरे भगवान् बोले ,<br>
''न भूलें आप केवल जीत को ले .<br>
नहीं पुरुषार्थ केवल जीत में है .<br>
विभा का सार शील पुनीत में है .''<br>
<br>
''विजय, क्या जानिये, बसती कहां है ?<br>
विभा उसकी अजय हंसती कहां है ?<br>
भरी वह जीत के हुङकार में है ,<br>
छिपी अथवा लहू की धार में है ?''<br>
<br>
''हुआ जानें नहीं, क्या आज रण में ?<br>
मिला किसको विजय का ताज रण में ?<br>
किया क्या प्राप्त? हम सबने दिया क्या ?<br>
चुकाया मोल क्या? सौदा लिया क्या ?''<br>
<br>
''समस्या शील की, सचमुच गहन है .<br>
समझ पाता नहीं कुछ क्लान्त मन है .<br>
न हो निश्चिन्त कुछ अवधानता है .<br>
जिसे तजता, उसी को मानता है .''<br>
<br>
''मगर, जो हो, मनुज सुवरिष्ठ था वह .<br>
धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह .<br>
तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था ,<br>
बडा ब्रह्मण्य था, मन से यती था .''<br>
<br>
''हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का ,<br>
दलित-तारक, समुध्दारक त्रिया का .<br>
बडा बेजोड दानी था, सदय था ,<br>
युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था .''<br>
<br>
''किया किसका नहीं कल्याण उसने ?<br>
दिये क्या-क्या न छिपकर दान उसने ?<br>
जगत् के हेतु ही सर्वस्व खोकर ,<br>
मरा वह आज रण में नि:स्व होकर .''<br>
<br>
''उगी थी ज्योति जग को तारने को .<br>
न जनमा था पुरुष वह हारने को .<br>
मगर, सब कुछ लुटा कर दान के हित ,<br>
सुयश के हेतु, नर-कल्याण के हित .''<br>
<br>
''दया कर शत्रु को भी त्राण देकर ,<br>
खुशी से मित्रता पर प्र्राण देकर ,<br>
गया है कर्ण भू को दीन करके ,<br>
मनुज-कुल को बहुत बलहीन करके .''<br>
<br>
''युधिष्ठिर! भूलिये, विकराल था वह ,<br>
विपक्षी था, हमारा काल था वह .<br>
अहा! वह शील में कितना विनत था ?<br>
दया में, धर्म में कैसा निरत था !''<br>
<br>
''समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये ,<br>
पितामह की तरह सम्मान करिये .<br>
मनुजता का नया नेता उठा है .<br>
जगत् से ज्योति का जेता उठा है !''<br>
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
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युधिष्ठिर प्राप्त कर निस्तार भय से ,<br>
प्रफुल्लित हो, बहुत दुर्लभ विजय से ,<br>
दृगों में मोद के मोती सजाये ,<br>
बडे ही व्यग्र हरि के पास आये .<br>
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कहा, ''केशव! बडा था त्रास मुझको ,<br>
नहीं था यह कभी विश्वास मुझको ,<br>
कि अर्जुन यह विपद भी हर सकेगा ,<br>
किसी दिन कर्ण रण में मर सकेगा .''<br>
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''इसी के त्रास में अन्तर पगा था ,<br>
हमें वनवास में भी भय लगा था .<br>
कभी निश्चिन्त मैं क्या हो सका था ?<br>
न तेरह वर्ष सुख से सो सका था .''<br>
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''बली योध्दा बडा विकराल था वह !<br>
हरे! कैसा भयानक काल था वह ?<br>
मुषल विष में बुझे थे, बाण क्या थे !<br>
शिला निर्मोघ ही थी, प्राण क्या थे !''<br>
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''मिला कैसे समय निर्भीत है यह ?<br>
हुई सौभाग्य से ही जीत है यह ?<br>
नहीं यदि आज ही वह काल सोता ,<br>
न जानें, क्या समर का हाल होता ?''<br>
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उदासी में भरे भगवान् बोले ,<br>
''न भूलें आप केवल जीत को ले .<br>
नहीं पुरुषार्थ केवल जीत में है .<br>
विभा का सार शील पुनीत में है .''<br>
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''विजय, क्या जानिये, बसती कहां है ?<br>
विभा उसकी अजय हंसती कहां है ?<br>
भरी वह जीत के हुङकार में है ,<br>
छिपी अथवा लहू की धार में है ?''<br>
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''हुआ जानें नहीं, क्या आज रण में ?<br>
मिला किसको विजय का ताज रण में ?<br>
किया क्या प्राप्त? हम सबने दिया क्या ?<br>
चुकाया मोल क्या? सौदा लिया क्या ?''<br>
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''समस्या शील की, सचमुच गहन है .<br>
समझ पाता नहीं कुछ क्लान्त मन है .<br>
न हो निश्चिन्त कुछ अवधानता है .<br>
जिसे तजता, उसी को मानता है .''<br>
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''मगर, जो हो, मनुज सुवरिष्ठ था वह .<br>
धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह .<br>
तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था ,<br>
बडा ब्रह्मण्य था, मन से यती था .''<br>
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''हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का ,<br>
दलित-तारक, समुध्दारक त्रिया का .<br>
बडा बेजोड दानी था, सदय था ,<br>
युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था .''<br>
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''किया किसका नहीं कल्याण उसने ?<br>
दिये क्या-क्या न छिपकर दान उसने ?<br>
जगत् के हेतु ही सर्वस्व खोकर ,<br>
मरा वह आज रण में नि:स्व होकर .''<br>
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''उगी थी ज्योति जग को तारने को .<br>
न जनमा था पुरुष वह हारने को .<br>
मगर, सब कुछ लुटा कर दान के हित ,<br>
सुयश के हेतु, नर-कल्याण के हित .''<br>
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''दया कर शत्रु को भी त्राण देकर ,<br>
खुशी से मित्रता पर प्र्राण देकर ,<br>
गया है कर्ण भू को दीन करके ,<br>
मनुज-कुल को बहुत बलहीन करके .''<br>
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''युधिष्ठिर! भूलिये, विकराल था वह ,<br>
विपक्षी था, हमारा काल था वह .<br>
अहा! वह शील में कितना विनत था ?<br>
दया में, धर्म में कैसा निरत था !''<br>
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''समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये ,<br>
पितामह की तरह सम्मान करिये .<br>
मनुजता का नया नेता उठा है .<br>
जगत् से ज्योति का जेता उठा है !''<br>
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