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'''मुझे दुनियाँ का फलसफ़ा मालूम नहीं है'''

मुझे दुनियाँ का फलसफ़ा मालूम नहीं है.

बच्चा खुद को नंगा देखकर खुश होता है.

न-जाने-हुए फलसफ़े को ढोते ढेरों लोग<br />
रोज़ मरते हैं. लोगों की आँखों में झाँको<br />
तो न-जाना-सा फलसफ़ा एक खौफ़ की<br />
मांनिंद भीतर उतर जाता है. जहाँ बच्चों<br />
की आँखों की नग्नता अँकुराती है.

अखवार पढ़ते हुए अचानक कविता<br />
पढ़ना पढ़े तो एक बैचेनी-सी होती है.<br />
यहीं से दुनियाँ के फलसफ़े का सिरा<br />
शुरु होता है.

कविता प्रिया की तरह नहीं आती है.<br />
तग़ादा करने आये बनिया की तरह<br />
एहसास कराती है.

'''रचनाकाल''': 20/01/1996
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