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Kavita Kosh से
सरनिगूँ<ref>सर झुका हुआ</ref> देख कर तुझे ऐ दोस्त,
मुझको अपना वजूद <ref>अस्तित्त्व</ref> खलता है।
मौत के मुस्तकिल<ref>सतत</ref> तकाजों में,
नासमझ देख करके खिलता है।
हमनें इस तरह निभाये रिस्तेरिश्ते,
जैसे कपडे़ कोई बदलता है।