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|रचनाकार=रंजना जायसवाल
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<poem>
कितनी सुन्दर लग रही है
हरी साडी़ पर पीली चूनर ओढे़
बालिका-वधू सरसो
सजीले दूल्हे गेहूँ के साथ

हवा शरारती सखी-सी
बार-बार मिला देती है उन्हें
खिल-खिल हँसती है सरसो
झरते हैं पीले फूल

सूरज-चाँद
जुगनू-तारे
धरती-आकाश
सभी दे रहे हैं आशीष
'चिर सुहागिन रहो सरसो रानी'

मरेगी भी सुहागिन सरसो
उसके जाते ही
सूखकर कडा़ होने लगेगा
गेहूँ का हरा मन
खनखनाने लगेगा उसका दुख
जल्द ही जा लेटेगा
खलिहान में...

मृत्यु पीटेगी उसे
तो झरेगा उसका दुख
दानों की शक्ल में
आएगी याद उसे
प्रियतमा सरसो

जो नहीं सह पाती थी
कच्चे दानों में
चोंच मारना पक्षियों का
जार-जार रोएगा वह
छा जाएँगे
उसके उच्छवास
भूसे ले रूप में उड़कर चतुर्दिक

उधर निर्जीव सरसो
उबटन की तरह
मली जा रही होगी
किसी कुँआरी देह में
सुहागिन बनाने के लिए...।
</poem>