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बोनसाई / रंजना जायसवाल

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<poem>
चाहता हूँ मैं
छतनार वृक्ष होना
थके राहगीर विश्राम पाएँ
जिसकी छाँह में...
गिलहरियाँ दौडे़
जिसके मोटे तनों पर...
पक्षी घोंसले बनाएँ
सूखी डालियाँ
पीले पत्ते
ईंधन बनें गरीबों का...
जड़ें अन्वेषण करें
दूर तक जाकर भोजन का
मीठे पानी की तलाश में

पर...
कमरे में हरियाली
क़ैद करने की
तुम्हारी लालसा ने
बनाया मुझे बोनसाई

गमले-भर मिट्टी
अंजुरी-भर खाद
चुल्लू-भर पानी
विस्तार की सारी आकाँक्षाएँ
इन्हीं सीमाओं में
क़ैद कर दी गई

कमरे के बाहर का आकाश
हवा... धूप... बारिश
झूमते सजातीय बंधु
सब पराए बना दिए गए

जब भी मैंने बाहें फैलानी चाहीं
कस दिया तुमने धातु के तार से
कैंची चलाई मेरी पीडा़ सुने बगैर
पक्षी नहीं आते घोसला बनाने
मेरी बाहें सूनी रह जाती हैं
तुम्हारे ड्राइंग रूम की शोभा बना
मैं बोनसाई
तुम्हारी इच्छाओं का दास...।
</poem>