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केले का पेड़ / रंजना जायसवाल

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<poem>
अपने वज़न से ज़्यादा
फलों को लादे
केले के पेड़ से
पूछ बैठी
एक दिन-
केले, इतना बोझ
क्यों तू झेले...?

पहले तो केले का पडे़
गुस्से से
हरा-पीला होता गरजा-
डीठ न लगा
बच्चों को मेरे
बोझ तू बोले

फिर अपने लम्बे हरे दामन से
फलों को ढँकने का
प्रयास करते हुए
मीठे स्वर में बोला -
कहीं अपनों का भी
होता है भार
अभी तो उठा सकता हूँ
और दो-चार...

कई दिन बाद
अचानक देखा केले के पडे़ को
उसके हरे शरीर पर
ज़ख्मों के ताज़ा निशान थे
जगह-जगह से रिस रहा था
दूध का रक्त
काटकर अलग रख दीं गई थीं
उसकी फलियाँ

वह धरती पर पडा़
तड़प रहा था
अपने बच्चों के लिए...।
</poem>