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{{KKRachna
|रचनाकार=मैथिलीशरण गुप्त
|संग्रह=पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त}} [[Category:कविता]]{{KKCatKavita}}
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चारु चंद्र चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रही रहीं हैं जल-थल में,:स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई हैअवनि और अंबर तल अम्बरतल में।पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,:मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥
:पुलक प्रगट करती पंचवटी की छाया में है धरती, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,:हरित तृणों की नोकों सेजिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर वीर निर्भीकमना,:मानो झूम रहे हैं तरु भीजाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?:मंद पवन के झोंकों से।भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥
क्या ही स्वच्छ चाँदनी किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,:राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या ही निस्तब्ध निशाधन है,:जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है स्वच्छ-सुमंद गंध वह,निरानंद मन है, जीवन है कौन दिशा?!
:बंद नहीं अब भी चलते हैं:नियतिमर्त्यलोक-नटी के कार्यमालिन्य मेटने, स्वामि-कलापसंग जो आई है,:पर कितने एकान्त भाव सेतीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,:कितने शांत और चुपचाप।विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥
है बिखेर देती वसुंधरामोती सबके सोने कोई पास न रहने परभी,जन-मन मौन नहीं रहता;रवि बटोर लेता :आप आपकी सुनता है उनकोवह, आप आपसे है कहता।सदा सवेरा होने पर।बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,:मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;:और विरामहै स्वच्छन्द-दायिनी अपनीसुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,:पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप! है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,:रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,:शून्य-श्याम -तनु जिससे उसका:, नया रूप छलकाता झलकाता है। सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,:अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,:पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥ तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,:वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।:किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की! और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,:व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;:पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!
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