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|रचनाकार=मैथिलीशरण गुप्त
|संग्रह=पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त}} [[Category:कविता]]{{KKCatKavita}}
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क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;:और विरामहै स्वच्छन्द-दायिनी अपनीसुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,:पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप! है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,:रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,:शून्य-श्याम -तनु जिससे उसका:, नया रूप छलकाता झलकाता है। सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,:अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,:पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥ तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,:वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।:किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की! और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,:व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;:पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!
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